साहित्य चक्र

25 July 2021

"घर एक कहानी"



मैं झूले वाली कुर्सी पर बैठा था, ये कुर्सी मुझे मेरे बेटे ने लाकर दी थी। मेरा बेटा, विवेक! कहा था पापा आपको बड़ा शौक था ना ऐसी कुर्सी का, तो बस अब आप आंनद लीजिए। मैं भी बड़ा खुश हुआ, दिल गदगद हो गया, मेरा छोटा सा बेटा कितना बड़ा हो गया। मोहल्ले भर के लोगों को बारी बारी से चाय पर बुलाता था ताकि उन्हें कह सकूं देखो ये झूले वाली कुर्सी मेरा बेटा लाया है। फिर उस कुर्सी पर बैठता और सबको झूलकर दिखाता। इस कुर्सी पर बैठने का उत्साह और सुकून आज भी बिल्कुल वैसा ही है, जैसा उस वक्त था।




       आज भी मैं इस कुर्सी पर बैठा झूलते हुए कुछ सोच रहा था कि मेरी नजर सिरहाने टंगी परिवारिक तस्वीर पर पड़ी। ये नए जमाने की पुराने फोटो से बनी तस्वीर थी। एक ही तस्वीर मे सब अलग अलग खड़े थे, कोई अकेला तो कोई अपने दो सदस्यों के परिवार के साथ। तस्वीर के निचले कोने मे लगी एक फोटो मे मैं भी था, अपनी जीवन संगिनी, बहु और बेटे के साथ। मैं तस्वीर निहारते हुए सोच रहा था, समय तो जैसे ठहर ही गया है। कि घर के दरवाजे पर खिलखिला कर हंसने की आवाज आई, आवाज जो मुझे कई साल पहले ले गयी, आवाज जिसने मुझे एक ही क्षण मे विवेक का पूरा बचपन याद दिला दिया, आवाज जिसने मेरे सोच मे पड़े रूखे होठों पर मुलायम ममतामयी मुस्कान ला दी। अब मैं रूखी और दुखी सोच से निकलकर प्रेम की दुनिया मे आ चुका था। मेरे होंठो पर मुस्कान और नज़रों मे इन्तज़ार था कि आखिर इतने सालों बाद कोन खिलखिलाया मेरे दरवाजे पर।

        दरवाजा खुला, और मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। मेरी आंखे चमक उठी। एक प्यारा छोटा सा बच्चा। मैं उसे ठीक तरह से देखता तब तक तो वो दौड़ कर पीछे आँगन मे पहुंच चुका था। 

        बंद पड़े घर अपने समय में ही ठहर जाते है। मुझे लगा, मैं विवेक के बचपन मे आ चुका हूं। मैं उसके पीछे गया। आँगन मे, जालों मे लिपटी, धूल से सनी विवेक की छोटी सी साइकल को उठाते हुए उसने आवाज लगाई, पापा ! मैं पीछे मुड़ा और मेरे सामने विवेक खड़ा था। अब ना तो ये बंद पड़ा घर रहा और ना ही समय ठहरा हुआ। अब मुझे समझ नहीं आ रहा था अपने कदम आगे बढ़ाऊं या पीछे की तरफ भाग कर पोते को गले लगाऊँ!
        

जब दोराहे की दोनों राहों पर खुशियां हो तो खुशियां चुनने मे हम समय लगा देते है। मैं असमंजस मे था, कि दरवाजे पर मुझे मेरी जीवन संगिनी दिखाई दी, मैं उसकी ओर बढ़ा, वो अंदर आई और पूरे घर को निहारने लगी। वो घर को देख रहीं थीं, और मैं उसे, इतने सालों मे कितना बदल गयी है वो, सफेद बाल, चेहरे पर झुर्रियां मगर आज भी उतनी ही खूबसूरत! उसकी नजर उसी परिवारिक तस्वीर पर पड़ी और देखते - देखते वो भरी आंखों से बोली, समय तो जैसे ठहर सा गया था! मैं उसके कन्धे पर हाथ रखता तब तक विवेक उसको सम्हालते हुए बोला - अब मत रोईए ना माँ! देखो, आपके कहने पर मैंने कोशिश करके यहां ट्रांसफर भी करवा लिया, आप चाहती थी ना कि मेरी हंसी से गूंजा ये घर आपके पोते की हंसी से भी गंजे, देखो, गूंज रहा है। 

अब बस आप इस पल का आनंद लीजिए। मुझे यकीन है, पापा भी यदि हमे देख रहे होंगे तो बहोत खुश होंगे। हाँ बेटा, मैं बहोत खुश हूं! तस्वीर का ये एक कोना, मेरे घर के कोने कोने मे जो बसा है। 

मरने के बाद भी खुशियां मिलती है, और यहीं खुशियां ये तय करती है कि मरने वाला स्वर्गीय है !

घर बोलता है तोतली बोलियां, जिन्हें सुनोगे तो तुम हंस पड़ोगे।



                                                          श्रद्धा जैन 


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