अगर हम भौतिकता से परे जीवन का अनुभव कर पाने में सक्षम हो जाते हैं तो निश्चय ही हम आध्यात्मिकता के पथ पर अग्रसर होते हैं। जब हम सृष्टि के सभी प्राणियों में उसी परमसत्ता के अंश को महसूस करते हैं जो हम स्वयं होते हैं तो हम कह सकते हैं कि हम आध्यात्मिक है। जब हम अपने दुःख, क्लेश,क्रोध आदि के लिए खुद को जिम्मेवार मानते हैं तो हम आध्यात्मिकता के सीढ़ी पर चढ़ रहे होते हैं।एक आध्यात्मिक व्यक्ति अपने सुख-दुःख का निर्माता स्वयं को बताता है और सृष्टि के कण-कण में परमपिता के होने की अनुभूति करता है तो हम कह सकते हैं कि अमुक व्यक्ति आध्यात्मिक है।
हमारे किसी कार्य से किसी का अहित नहीं होता हो और हमारा प्रत्येक कार्य दूसरों को सुख व शांति प्रदान करता है तो हम आध्यात्मिक हैं।आध्यात्मिक वह है जो अपने अंहकार, ईर्ष्या, लोभ,मद,मोह,काम,क्रोध और पूर्वाग्रहों को नाश कर चुका है।चाहे परिस्थितियाँ कैसी भी क्यों न हो जो व्यक्ति हमेशा अंदर से प्रसन्न व आनंदित रहता है, वह व्यक्ति आध्यात्मिक है।
जब आप दूसरों के दुःख से व्यथित होते हैं और आपके मन में संसार के सभी प्राणियों के लिए करुणा फुट रही होती है तो निश्चय ही आप आध्यात्मिक हैं।
आध्यात्मिकता को किसी धर्म,सम्प्रदाय या मत से कोई लेना- देना नहीं है।आध्यात्मिक होने के लिए हमें किसी मंदिर, मस्जिद या चर्च में जाने की आवश्यकता नहीं है।यह हमारे स्वयं के अंदर ही घटित हो सकती है।जब आप किसी काम को पूरी तन्मयता से करते हैं यानी आप उस काम में पूरी तरह डूब जाते हैं तो यहीं से आध्यात्मिकता की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। अधिकांश लोगों की ऐसी धारणाएँ होती है कि आध्यात्मिक जीवन में आनंद लेना वर्जित है और कष्ट झेलना जरूरी है।परंतु यह धारणा बिल्कुल निराधार है, क्योंकि जो व्यक्ति आध्यात्मिक हो जाता है वह भयमुक्त हो जाता है और उसे हर पल ही आनंद की अनुभूति होती है।
इस पूरे ब्रह्मांड में उसे अपनी अस्तित्व की पहचान होती है। वह स्वयं को जान पाने में सक्षम होता है। आध्यात्मिक व्यक्ति सदा ही प्रसन्नचित रहता है और उसका प्रत्येक कार्य सृष्टि को सुंदर एव खुशहाल बनाने वाला होता है।
कुमकुम कुमारी 'काव्याकृति'
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