साहित्य चक्र

24 July 2021

हमें जो सीख दें वही हमारे गुरु हैं।


गुरु पूर्णिमा के शुभ अवसर पर उन सबको नमन करती हूं जिन्होंने किसी न किसी रूप में कोई शिक्षा दी है। किताबों से परिचय कराया है  अथवा जीवन जीने का रास्ता बताया है। आहत करके दुःख सहने की क्षमता को बढ़ाया है या आंसू पोंछकर अपनापन जताया है।

वक्त भी इसी श्रेणी में आता है। अच्छा वक्त दुनिया से हमारा परिचय करवा देता है जबकि बुरा वक्त खुद से अपना परिचय करवा देता है। वक्त जो सिखाता है वह बात दुनिया का कोई विद्यालय नहीं सीखा सकता है। दो वर्षों में इस बात को दुनिया का हर इंसान स्वीकार कर चुका है।

माता पिता और शिक्षकों के अलावा जिन लोगों ने कुछ सिखाया है उन्ही का जिक्र इस लेख में कर रही हूं। सबके बारे में लिखना संभव नहीं है और संपादक भी उतना लंबा लेख नहीं छापेंगे इसलिए कुछ लोगों की सीख सबके साथ साझा कर रही हूं।

शुरुआत अपने छात्रों से कर रही हूं। कहने को तो अध्यापक उन्हे सिखाते हैं परंतु कई बार बच्चे भी बड़ी बड़ी बातें सीखा देते हैं। एक ज़िद्दी बालक जिसने कभी शिक्षकों की बात नहीं मानी, कभी कक्षा कार्य नहीं किया एक दिन गले में, खेलों में मिले मेडल डालकर खड़ा होता है। बिना कुछ बोले ही सीखा देता है कि हर बच्चे को किताबी कीड़ा बनना ज़रूरी नहीं है। खेल, नृत्य और संगीत जैसे क्षेत्रों में भी भविष्य संवारा जा सकता है।

अलग अलग संस्थानों में काम करते हुए कुछ बातें साथ रह गई। कुछ बातें सीख बन गई। एक संस्थान के प्रमुख की यह बात हमेशा याद रहती है कि उनके सभी कर्मचारी श्रेष्ठ हैं क्योंकि उन्होंने उनको चुना है और अपने चुनाव पर उन्हें गर्व है। उनके कर्मचारी कोई गलती नहीं करते हैं। यदि गलती होती भी है तो  उनके निर्देशित करने के तरीके में होती है। यही कारण है कि वह हमेशा सकारात्मक वातावरण में रहते हैं और अपनी गलतियों को सुधारकर अपनी योग्यता को निखारते रहते हैं। उनकी यह बात अकसर मन में आ जाती है।




एक दूसरे संस्थान की प्रमुख एक महिला को हर दूसरे तीसरे वर्ष अपने कर्मचारियों को बदलने की आदत थी क्योंकि उन्हें साक्षात्कार लेना पसंद था। वो अपने सभी कर्मचारियों को यह कहकर त्यागपत्र लिखवा लेती थी कि तुमसे जितना मतलब था वो निकल गया है अब तुम्हारी ज़रूरत नहीं है। कितनी सच्चाई थी उनके दोनों वाक्यों में। जीवन की गहराई छुपी हुई है। पूर्णतः अस्थाई जीवन के सफर में हमें स्थायित्व का सपना नहीं देखना चाहिए। यह सीख भी हमेशा याद रहती है।

लेखन में आने के बाद सीखा कि भावनाओं को दबाने से बेहतर है उन्हे व्यक्त किया जाए। वो भावनाएं जब कागज़ पर उतरती हैं तो कितने लोगों का दर्द कम कर देती हैं। यह अहसास कि कोई दूसरा भी हमारे जैसी परिस्थितियों से गुज़र रहा है या गुजर चुका है, दुःख कम करने के लिए काफी है। सड़क पर कचरा बिनने वाले  बच्चों को खेलते देखकर अहसास होता है कि खुशी पैसे वालों की जागीर नहीं है।

इस लेख में उन सभी संपादकों को भी शामिल करना चाहूंगी जिन्होंने एक अनजान व्यक्ति को एक साल में ही लेखक बना दिया। यदि रचनाएं प्रकाशित नहीं होती तो शायद नहीं लिखी जाती। उन्होंने यही सिखाया है कि यदि चलने का हौंसला कर लिया जाए तो आगे बढ़ाने वाले हाथ मिलते चले जाते हैं। जान पहचान नहीं भी हो तो आपकी मेंहनत और धैर्य आपको किसी भी क्षेत्र में स्थापित कर देता है।

गुरु किसी भी रूप में हमारे सामने आए हमें मुस्कुराकर उसका स्वागत करना चाहिए। बुरा इंसान या बुरा वक्त बनकर भी यदि गुरु सामने आए तो धीरज नहीं खोना चाहिए। बीमारी बनकर या हार के रूप में भी यदि गुरु आ जाए तो विचलित नहीं होना चाहिए। गुरु किसी भी रूप में हमारे सामने आए कोई सीख तो देकर जायेगा। सीखते रहने से ही आगे बढ़ते रहेंगे और एक दिन यह संसार बांहे फैलाकर उस व्यक्ति का सत्कार करेगा जो सीखकर निखर गया होगा।


                                              अर्चना त्यागी


No comments:

Post a Comment