साहित्य चक्र

11 July 2021

*बेजुबान*




जरा देखकर गाड़ी,
चलाओ गाड़ीवान।
तेरी लापरवाही से निकल जाता, 
कितने बेजुबानों का प्राण।

मार  कर  ठोकर  उनको,
तुम कर देते हो लहुलुहान।
राह  पर  तड़पता  छोड़,
क्यों निकल जाते हो गाड़ीवान।

उन बेजुबानों को भी होता है,
दर्द हम जैसों के समान।
उनके अंदर भी बसता है,
छोटा  सा  एक  प्राण।

मानवता  के वेश में तुम,
क्यों बन जाते हो हैवान।
तज  कर  इंसानियत को,
क्यों हर लेते हो उनके प्राण।

 सीमाओं में रहना जरा,
 सीख  लो  हे  इंसान।
ये धरा सिर्फ तुम्हारी नहीं,
इस बात का रखो तुम ध्यान।


                                            कुमकुम कुमारी 'काव्याकृति'


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