एक वक्त जीवन में ऐसा आता है जब लगने लगता है जैसे सब कुछ रुक गया है। सब ख़त्म हो गया है। चलते रहने की कोई वजह नज़र नहीं आती है। चलने की हिम्मत भी टूट चुकी होती है। तभी अचानक मन के किसी कोने से एक आवाज़ आती है।
रुकना मौत का दूसरा नाम है।
जीवन चलने का नाम है।।
जब तक जीवन है, चलते ही रहना है। मन की परवाह किए बिना। वजह की तलाश किए बिना। हम सब वर्तमान में इसी स्थिति में जी रहे हैं। महामारी दहशत व्याप्त करने में कामयाब हो गई है। बहुत कुछ हमसे छिन गया है, बहुत कुछ छिन रहा है। और आगे भी जाने क्या होने वाला है ? सब काम धंधे बंद हैं। हम सब भी पूरी तरह चारदीवारी में बंद हैं। जो भी अपने पास है उसी में काम चला रहे हैं।
सुबह बिस्तर से उठते हैं और एक निश्चित चारदीवारी में घूम फिरकर फिर से उसी बिस्तर पर लौट आते हैं। सब कुछ रुका हुआ है यहां तक कि सोच की गति भी और युधिष्ठिर के अनुसार दुनिया में सबसे तीव्र गति से चलने वाला मन भी दुख के अथाह सागर में डूबकर चुप चाप बैठ गया है। हर इंसान के पास दुख की कोई कहानी है। सबकी अपनी व्यथा है। दुख सबकी जबान पर चढ़ा हुआ है, उतरने का नाम ही नहीं ले रहा है। हमारी बेबसी की दास्तान बन गया है।
वर्तमान स्थिति के बारे में सोचें तो हर दिन ढलते ढलते यही पैग़ाम देकर जाता है कि जीवन तो बस पानी का एक बुलबुला है। हवा चले या तेज़ धूप निकले उसे तो फूट ही जाना है। फिर क्या जरूरत है इतनी जद्दोजहद की ? इतनी मेहनत और भागदौड़ की ? जो भी मिला है, जैसा भी मिला है उसे वैसा ही स्वीकार कर लेना चाहिए। और बस ऐसे ही बैठे बैठे जीवन गुज़ार देना चाहिए जैसे अभी गुजार रहे हैं। परंतु क्या यह धारणा बना लेना उचित है ? भले ही अनचाहे ही सब रुक गया है लेकिन समय बदलेगा ज़रूर। जीवन फिर से चलेगा ज़रूर।
पहले से भी अधिक तीव्र गति से। दिन रात बिना रुके बस चलता ही रहेगा। आगे और आगे बढ़ता ही रहेगा कभी न रुकने के लिए। बस इसी उम्मीद को जगाए रखना है। इसी आशा और विश्वास को बचाए रखना है। तभी इस दुख के वातावरण से मुक्ति मिल पाएगी। हमारी कोशिशें अवश्य रंग लायेंगी। जो टूट गया है, छूट गया है, उसे वापिस नहीं लाया जा सकता है। लेकिन जब तक जीवन है तब तक चलते रहना ही नियम है। जीवन रुकने का नहीं बल्कि चलने का नाम है।
अर्चना त्यागी जी कलम से...
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