ज़िन्दगी बहुत बोलती है हमेशा कुछ न कुछ पाने की ख्वाहिश में जितना पाती नहीं उतना छोड़ देती। चूंकि मेरा सेवा निवृत्त का समय नजदीक है और जब मैंने सोचा कि सेवा से निवृत्त होने के बाद का समय अपनो के बीच गुजारूंगां तो मानसपटल पर अजीब सी हलचल होने लगी है क्योंकि जिनको मैं अपना कह रहा हूं। वो सब अपने अपने भी हो गये है।यानी कि सबकी अपनी अपनी दुनिया है।
जिसमें मेरे लिए कोई जगह नहीं है। क्योंकि उनकी दुनिया में मैंने कभी अपनी तरफ से बदलाव का प्रयास नहीं किया। मैं दुनिया को बदलता रहा पर अपने को और अपनों को कभी बदलने का प्रयास नहीं किया। धीरे धीरे सब बदल गया और बिखरता गया। इतना बिखर गया कि अब समेटना बड़ा मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुमकिन है।
पिता जी घर छोड़ कर बहिन के यहां रह रहे हैं। मेरी बेटियां दोनों दूर देश जाकर बसीं है। भाईयों का अपना परिवार है। और सबके अपने अपने लड़के बच्चे अब परिवार में नहीं बल्कि समाज में रह रहे हैं। वो रिश्ता जो छोड़ आया था जिसमें गरीबी थी पर रिश्ता था। जहां एक ही चूल्हे में खाना तथा एक ही आंगन में सोना व नानी की कहानियां सबके सब एक ही रिश्ते में जीते थे।
कोई भेद भाव नहीं, कोई दुराव नहीं आपस में मिल जुल कर सारे उत्सव त्योहार मनाते थे। गांव के सभी लोग मिलकर दशहरा, दिवाली और होली मनाते थे। क्या मजाल कोई दुराचार, बदनियती और व्यभिचार कर सके। क्योंकि परिवार में कोई अलग ना रह सकता था,ना ही उसकी सोच अलग थी। सभी साथ में मिल कर खेत, खलिहान में काम करते थे।एक ही रसोई में, एक ही आंगन में सोना होता था।
सभी लोग मिलकर सुख दुःख को बांटते थे। त्योहारऔरउत्सव ,मेला और बाजार सब जगह रिश्ते व दुःख दर्द बांटते थे। रिश्तों का वास्तविक स्वरूप दिखाई देता था।एक दूसरे के बारे में कुशल क्षेम पूंछ कर सबके सब रिश्तों में प्रेम का रंग भरते थे। और तो और खेती, जानवरों एवं पशुओं की बातें भी एक दूसरे से करते थे। जिससे कि आपसी रिश्ते प्रगाढ़ होते थे।जो कि कालांतर में खो से गए हैं।
अब पूरा परिवार वा कुनवा विखर सा गया है। मैं चाहकर भी उस रिश्ते को पुनः नहीं जी सकता, क्योंकि उस रिश्ते की जो तासीर है उसकी जो शर्तें थी वह अब खत्म हो चुकी है। रिश्तों की परिभाषायें, विशेषतायें,मिठास, मासूमियत सब बदल गयी है पहले सब लोग एक परिवार में एक साथ खाना ,पीना , सोना, जागना, काम करना और एक दूसरे के भावों विचारों का अहसास करना,दूर दूर रहकर भी एक दूसरे को समझना सुनना, बातें करना बहुत ही सहज था। अब तो एक ही छत के नीचे पूरा परिवार रह रहा है पर कई कई दिनों तक बात चीत नहीं होती।एक दूसरे को समझना,परखना तथा क्या करना बहुत कठिन सा हो गया है।
मैं जो रिश्ता छोड़ आया था वह फिर से जीना चाहता हूं। मुझे मेरा गांव, गांव के सभी लोग, वहां की मिट्टी की महक, रिश्तों की मिठास, रिश्तों की डोर आज भी खींचती है,पर वह रिश्ता बहुत पीछे छूट गया है।आज मन रिश्तों को ढूंढ रहा है सब कुछ होकर भी व्यक्ति रिश्तों के बगैर नहीं जी सकता है। क्योंकि रिश्ते बड़े अमूल्य एवं नाजुक होते हैं,एक बार रिश्ता टूटा या विखरा तो जुड़ना बड़ा मुश्किल है क्योंकि कवि ने कहा है कि "रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ो चटकाय, टूटे से फिर ना जुड़े जुड़े गांठ पड़ जाए।" फिर भी उम्मीद से दुनिया कायम है। मैं पुनः उस रिश्ते को जोड़ना चाहता हूं,जिसे बहुत पीछे छोड़ आया हूं।
लेखक- भगवत पटेल
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