पिता जी काफी समय से चलने में असमर्थ हैं. सभी ने अपने-अपने तरीके से प्रयास कर के देख लिया। अम्मा की सलाह थी छड़ी ले कर धीरे- धीरे, घर के सामने वाले पार्क में ही चल लिया करें। मेरा कहना था कि छड़ी में गिरने का डर है तो मैं सहारा दे कर ले चलती हूँ। जब तब आने वाले उनके इकलौते मित्र भी उन्हें साहस बटोरने के किस्से सुना जाया करते थे। बच्चों का आग्रह था कि छड़ी ले कर नहीं चले, कम से कम वॉकर पकड़ कर ही चलें। चलने - फिरने में पराधीनता तो न रहेगी।
इधर कुछ दिनों से पिता जी ने खड़ा होना ही छोड़ दिया है। कहते हैं चल कर कहाँ जाना है ? जितना चलना था चल चुके अब तो भगवान के घर जाना है और वहाँ जाने के लिए चलने की कोई आवश्यकता नहीं है।
वीडियो कॉल पर पोते ने भी खूब समझाया था, बोला - आपके लिए ऑन लाइन शॉप से वॉकर ऑर्डर किया है. जब आपको मिल जाए तो उसके साथ अपनी फोटो भेजिएगा। मैं अपने नाना जी को अपने पैरों पर खड़ा देखना चाहता हूँ।
धीरे- धीरे सबने यह मान लिया कि पिता जी अब न तो कभी चलेंगे न ही खड़े होंगे। घर में सबकी आँखें उन्हें बैठे देखने की अभ्यस्त हो गई थी। अब कोई उनसे कुछ न कहता, लेकिन उस दिन जो हुआ अप्रत्याशित था। उस दिन स्वतंत्रता दिवस था। सुबह से ही बच्चे और बड़े अपने स्कूल और ऑफिसों में झण्डा वंदन के लिए निकल गए।
मैं, अम्मा और काम वाली बाई टी वी चालू कर के बाकी काम करने के साथ- साथ टी वी पर लालकिले से स्वतंत्रता दिवस समारोह का सीधा प्रसारण देख रहे थे। पिता जी भी अपने बिस्तर पर गोल तकिया के सहारे बैठे टी वी देख रहे थे। श्याम श्वेत मेघों के बीच हो रही हल्की बारिश ने आँखों को लुभाने वाला दृश्य उपस्थित कर दिया था। हम तीनों ही काम छोड़ कर दृश्य और मन मोहक अंदाज़ में की जा रही कमेंट्री में खो गए। इसी बीच उद्घोषक ने देश के प्रधानमंत्री द्वारा ध्जारोहण की घोषणा की और अगले ही पल बैण्ड की धुन पर राष्ट्रगान चालू हो गया।
तभी अम्मा ने मुझे कोहनी मार कर हिलाया। मैंने अचकचा कर उनके द्वारा दिखाई गई अंगुली की दिशा में देखा। मैं अवाक् रह गई। अब तक काम वाली भी सचेत हो गई थी। हम तीनों ही देख रहे थे पिता जी किसी तरह पास ही रखी मेज और दीवार का सहारा ले कर राष्ट्र ध्वज के सम्मान में खड़े थे।
बिना कुछ कहे हम सब भी अपनी जगह पर तुरंत खड़े हो गए। टी वी पर जन गण मन की धुन बज रही थी।
अनीता श्रीवास्तव जी की कलम से...
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