काश तुम समझ पाती,
बांसों के झुरमुट को!
हरे भरे हैं फिर भी कटते,
लोगों को खुशियां देने को!
कोई उत्सव यदि घर में,
ढूंढे जाते बांसों के झुरमुट!
इतराते मुस्काते हैं ,
वह घर की खुशियां बनने को!
खुद को समर्पित कर देते हैं,
अवसर का हिस्सा बनने को!
यह वही बांस का झुरमुट है,
जो दुख में भी हो साथ खड़े!
जब हम कहते अलविदा दुनिया को,
कोई साथ नहीं चलता!
तब इन्हीं बांसों के झुरमुट से,
कुछ बांसों को लाया जाता,
इन पर ही फिर सजा के सईया,
शव को फिर जलाया जाता!
लिटे शव के कानों में कहते,
तुम चिंता सारी छोड़ दो!
मैं सुख में साथ तुम्हारी था ,
मैं दुख में साथ तुम्हारी हूं!
मैं कल भी तुम को समर्पित था,
मैं आज भी तुम्हें समर्पित हूं!
मैं जल जाऊंगा ,
पर रहूंगा साथ तुम्हारे!
डॉ माधवी मिश्रा
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