जाने कब तक सहना होगा।
यु घुट-घुटकर रहना होगा।।
बनकर खून ए मजलूमो का।
गली-गली में बहना होगा।।
अपनी मूँछे अपना तन।
सोच भी अपनी,अपना मन।।
फिर भी नफरत मिलती है।
ख्वाबों की लाशें जलती है।।
बात है सुनना बडजात्यों की।
बस हाँ जी-हाँ जी कहना होगा। बनकर खून..
घोडी़ अपनी,सवार न होगे।
गले नोट के हार न होगे।।
अपनी शादी में बैंड बजे ना।
नव वस्त्रों से कभी सजे ना।।
महगा छाता हाथ मे अपने।
पर धूप गमों में तपना होगा। बनकर खून.....
अपने हक पर अधिकार नही।
हम कभी उन्हें स्वीकार नही।।
शिक्षा-दीक्षा न दिया कभी।
बन द्रोण अगूंठे लिया सभी।।
बनकर सरकटी लाश कबतक।
हमें मौत नदी में बहना होगा। बनकर खून..
मुगलों से जो भी हार मिली।
गोरों से जो दुत्कार मिली।।
हमसे बदला लेते उनका।
न उखाड़ सके कुछ भी जिनका।
गोरों ने कायर नाम दिया।।
इन्हें कायर ही कहना होगा। बनकर खून..
न वक्त है,कुछ भी सहने को।
आओ मिलकर यलगार करें।।
विष वेल है जो मानवता के।
उनको समूल संहार करें।।
गीदड़ मारे जाते वन में।
अब सिंह सदृश रहना होगा। बनकर खून..
रामराज बौद्ध जी की कलम से..
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