साहित्य चक्र

24 July 2021

"गरिमा"




कई गलतियों के साथ
परिणय किया
बहुत कठोर निर्णय थे
पर..
बंधन तो सरल था
मैं क्या करती
उन दीवारों को तोड़ने के भी
कई प्रलोभन थे,
मेरे पास
उनके साथ मैं भविष्य को रोकने को तैयार हो गई
छोड़ दी 
एक पल में
मैंने
अबोध बच्चे की सी कोमलता 
जो मुझमें थी
छोड़ दी
एक पल में
मेरी आत्मा जिससे मेरा कई
जन्मों का वास्ता था
अब नही चाहती थी उसका हिस्सा बनूँ,
उससे अलग
मैं ये रहस्य
जानना चाहती थी
पर क्या करती, कुछ नही कर सकी
क्योंकि मैं एक स्त्री हूँ न
अपने अंदर डरों (डर) को पोसती हूँ 
आज तक खोखलेपन के साथ
नदी की देह में 
बरस कर बहती चली गई..
चाहती तो थी
तुम्हें सब समझा सकूँ
शब्दों से अलग
जो शब्दों से कहीं ज्यादा था
और आज
मैं हार गई....!!
मैं स्वेच्छाचारिणी
नही बन पाई..

                                                  सुशीला राजपूत


1 comment:

  1. वाह्ह्हह्ह्ह्ह... लाजबाब शब्दाभिव्यक्ति... 👌👌
    साधुवाद और बधाई.. 🌹🌹

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