साहित्य चक्र

31 July 2021

प्रकृति संग जीना छोड़ दिया


वो बचपन का सावन 
न जाने कहाँ खो गया
देखते ही देखते यह 
क्या अब हो गया

संस्कृति और संस्कारों की अब 
किसी को क्या है पड़ी
मानवता देखो आज
चौराहे पर है खड़ी

जिधर नज़र दौड़ाओ
अंधेरा नज़र आता है
कुछ देखने की कोशिश 
करते करते मन डर जाता है

आधुनिकता की इस दौड़ में
सबको अपनी अपनी है पड़ी
थोड़ी से काम नहीं चलता 
ज़रूरतें हो गई सब की बड़ी

पेड़ वो पुराने काट दिए 
नहीं रहे अब आंगन और द्वार
शहरों में बना ली गगनचुम्बी इमारते 
छोड़ दिये गांव के घर बार

कुएं बावड़ियों में नहीं है पानी 
सबके घर घर लग गए नल
शोपीस बन कर रह गए हैं 
आता नहीं हैं उनमें जल

सावन के झूले भी अब दिखाई नहीं देते
जहां नई नवेली दुल्हने झूला झूलती थी
अल्हड़ हंसी चूड़ियों की खनखनाहट और 
पायल की झंकार से पूरी वादियां गूंजती थी

पनघट के रास्ते भी हैं अब वीरान
कोई नहीं जाता पड़े हैं सुनसान 
वो पगडंडियां जिनपे चलती थी दुनियाँ
आज उनके मिट गए है नामों निशान

पर्यावरण को दूषित कर दिया बहुत
आदमी ने प्रकृति को कर दिया है नष्ट
प्रकृति संग जीना अब छोड़ दिया सबने
आदमी हो गया है अब कितना भ्रष्ट


                                     रवींद्र कुमार शर्मा


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