बीत रहा है जीवन सारा ।
कब सम्भलेगा इन्सान रे ।।
प्राण - पंखेरू उड़ जावैला ।
ले - ले अब तू रब का नाम रे।।
अपने कर्मों का लेखा करले ।
कब जाने कब जाना पड़े ।।
अपने अन्तरतम में तू झांक ।
साथ चलेंगे अच्छे काम रे ।।
तू जर से नर कैसे बना ।
पढ़ जीवन का इतिहास रे ।।
अब भी तू ना सम्भला तो ।
कब जाने कब आये पैगाम रे ।।
क्यूँ माया के मद - मोह में ।
अंधेरों का भार यूँ ढो रहे ।।
खोल अब तू मन की खिड़की ।
धरे रह जाएंगे सोना गहने दाम रे।।
जग में आते तू साथ क्या लाया ।
खाली आया-खाली हाथ जाए रे।।
पाप - पुण्य ही तेरे साथ चलेंगे ।
तो फिर कब लेगा 'हरि' नांम रे ।।
करले जग में कुछ तो पुरूषारथ ।
यश - यौवन - धन तो भंगुर रे ।।
नाचीज़' परहित-पवित्र राह तू चल।
कब ढल जाए जीवन की शाम रे।।
मईनुदीन कोहरी
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