साहित्य चक्र

27 January 2020

बच्चों की मौत पर सरकारें मौन क्यों ?




“बचपन वह हैं जो तितलियों की तरह उड़ने, फूलों की तरह महकने, चिड़ियों की तरफ चहकने के लिए होता हैं। और फिर मानव सर्वप्रथम एक बच्चा ही तो हैं और देश का भविष्य तो बच्चों के हाथ में होता हैं फिर उनकी मृत्यु पर सरकारें अक्सर मौन क्यों ? हो जाती हैं क्या राजनीतिक दबाव इतना होता हैं कि सरकारें चुप्पी साध लेती हैं या बच्चों की मौत पर उनको कोई फ़र्क नही पड़ता । वैसे देश के भुखमरी आंकड़ों पर नजर डालें तो ग्लोबल हंगर इंटेक्स 2019  की रिपोर्ट के अनुसार 117देशों में भारत 102वें पायदान पर हैं और रैंकिग में भारत का स्कोर 30.3 हैं । 

                         

वर्तमान मृत्यु दर की बात करें तो2016 के आंकड़ों के अनुसार 8.67 लाख से घटकर 2017में 8.02 लाख हो गई । और मृत्यु दर में भी लगातार सुधार हो रहा हैं। ऐसे में जब किसी प्रदेश में सौ,दो सौ,चार सौ की संख्या में बच्चों की मौत पर सरकारें मौन रहती हैं तो कई बार सवाल खड़ा हो जाता हैं आखिर क्यों? इस बात को समझने के लिए धूमिल जी की पुस्तक  ‘सांसद से सड़क तक'  पढ़ना यथार्थ सा लगता हैं–‘ एक आदमी रोटी बेलता हैं,एक आदमी रोटी खाता हैं,एक तीसरा आदमी भी हैं जो न रोटी बेलता हैं , न रोटी खाता हैं ,वह  सिर्फ रोटी से खेलता हैं , मैं पूछता हूं–यह तीसरा आदमी कौन हैं मेरे देश की सांसद मौन है !' आखिर क्यों यह लिखने की जरूरत पड़ गई धूमिल जी क्यों ! शायद ऐसे ही कहीं घटनाएं हुई होगी तब भी जब सरकारें मौन रही होगी यही कारण था कि उन्होंने आगे लिखा–‘ उन्होंने किसी चीज को सही नहीं रहने दिया न संज्ञा,न विशेषण,न सर्वनाम एक समूचा और सही वाक्य टूटकर बिखर गया है'। 

यह पढ़ने के बाद कहना गलत नहीं होगा कि बच्चें और स्त्री राजनीति करने का एक अहम हिस्सा बन चुके हैं, और थे भी, आने वाले कल में होगे बस इतना ही कहा जा सकता कि सरकारें मौन तोड़ती रहें और राजनीति करती रहें।"

                                                     रेशमा त्रिपाठी 


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