साहित्य चक्र

28 April 2020

*जीवन में सहजता एवं सरलता*



सहजता एवं सरलता का आत्मिक धरातल पर अवतरण "व्यवहार की कसौटी पर ही दृष्टव्य है।  शांत मनोभावों का विराम चिन्ह कभी-कभी मन की परतों में कहीं प्रवेश कर स्थान तो ग्रहण कर लेता है ...........किंतु यह आवश्यक नहीं कि यह स्थाई ही हो .... ।


           जल   की तरह जीवन में सरलता का समावेश अंतः पटल को श्वेत रूप आकार,, शांत भाव एवं उर्जा से ओतप्रोत  कर देता है.......... किंतु जिस प्रकार प्यासा व्यक्ति जल ग्रहण कर प्यास  शांत करता है.......  तब  यह जल की नैसर्गिक  सरलता है .........। जल की सरलता का  प्रत्यक्ष प्रमाण उसका तरल होना है...... उस वक्त  जल ठोस आकार धारण नहीं करता है ....…बल्कि वह तरल रूप में ही पिपासु की  प्यास शांत कर  उसे उर्जा प्रदान करता है । जीवन को जीवित रखने के लिए अति महत्व पूर्ण है ....... जल का   तरल होना।
                  

मनुष्य की सहजता  उसके जीवन के परिचालन एवं मुक्ति पथ के लिए उतनी  ही आवश्यक है…....जितना दैहिक स्तर पर मनुष्य की जल के लिए प्यास.... यदि व्यक्ति में सहजता सरलता को  आत्मसात करने के लिए अतीव एवं उत्कट प्यास जागती है.......तो यह भाव अजस्र स्रोत के रूप में अनवरत प्रवाहित होगा ..........उसके स्वयं के भीतर से यह स्रोत  कहीं बाहर नहीं है....उसे  उस भाव को प्राप्त करने के लिए अपने भीतर में उतरना है ।। जीवन जीने की सरस कला के अंतर्गत सहजता जन्म अवश्य लेती है...... उसी के साथ सरलता  का अवतरण"   क्रियाओं में भी प्रकट होने लगता है। जीवन की अप्राप्य स्थितियां प्राप्य की ओर गतिशील हुई सी आभासित होती हैं.....बहुत कठिन होते हुए भी सरल हो सकता है  किंतु......जीवन में इन्हें.… उतारना.....।

जीवन पथ में जो कुछ भी है.....यदि हम कहीं भीतर से उत्पन्न उस सहजता  से अपने जीवन को जीते हैं....उस पथ पर आगे बढ़ते हैं तो जीवन सरलता  के पुष्पमयी  बगीचे से लहलाने लगता है । अंदर और बाहर सर्वत्र  सुगंध बिखर जाती है.....।


 इस प्रकार  सहजता हमारे कर्म के क्षेत्र एवं  समाज के साथ हमारे कार्मिक व्यापार को प्रभावित करती  है.....। दुश्मन मित्र होने लगते हैं.... मित्र और गहरे जन्मों के सखा बनने लगते हैं..... और हमारा जीवन एक नई दिशा से गुजरते हुए नवीन पथ पर तीव्र गति से आगे बढ़ता है..... ।।

           
चहुं ओर  शांति का वातावरण एक वट  वृक्ष की शाखाओं के समान है   जो सभी के लिए समान छाया प्रदान करता है। वही इस भाव के प्राकट्य पर होता है।


निरंतर उठते भाव हृदय की गति से भी कहीं अधिक वेगवान हो जाते हैं.......हृदय संपूर्ण शरीर का परिचालन करता है तो वह हमारे मन को निरंतर गतिशील भी बनाए रखता है....निरंतर बदलते भाव मन की दिशा को भी परिवर्तित कर देते हैं । उलझे हुए भावों का समीकरण एक ऐसा प्रश्न बन जाता है....… कि वह सुलझने के बजाय  उलझा हुआ अधिक रहता है।

 भावों की  सहज स्थिति में स्थिर रहना सरल है ।  वहीं असहज भाव धारा की  वेग युक्त मनोभाव धारा में बहते चले जाना वैसे ही है जैसे वेगवान नदी में उसकी जलधारा के साथ अनियंत्रित होकर बहते जाना......जल की धारा के साथ बहना  स्वयं को डुबो देने जैसा ही है । जब रुक पाते हैं.....तब कुछ ऐसा घटित हो जाता है..... कि स्थितियां कुछ भिन्न होती हैं  ।

                  अतः  सहजता और सरलता रूपी तट पर बैठकर जीवन में जो सफलता मिलती है वह असहज जीवन की सफलता के गहरे समुद्र में डूबने से भी प्राप्त नहीं होती है।



                                                डॉ  सुकेशिनी दीक्षित




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