साहित्य चक्र

03 April 2020

वीरवधू

माँ की पीर तो पिता के आँखों का नीर थी
लाडली ये उनकी प्यारी गुड़िया
अब किसी फ़ौजी राँझे की हीर थी,
पर वक़्त के साए ने बदली
कुछ ऐसी ये तस्वीर थी,
कुछ ही सालों में यूँ जुदा हो गए
शायद ये ही उनकी तक़दीर थी,
अब तक थी जो मासूम गुड़िया
अब चट्टान सी मज़बूत थी,
कफ़न में लिपटा देख राँझे को
खुद में ही बेसुध मजबूर थी,
क्या कहे और किससे कहे
दिली हसरतें जो चल रही थी,
बीच सफ़र में अकेला जो छोड़ चला
बस उसी को निहारे क़फ़न को  देख रही थी,
शहीद विधवा का शब्द सुन
अंदर ही अंदर जैसे सहम ती थी
हूँ में "वीरवधु" उस वीर जाबांज़ की
खुद में ही खुद से वो कहती थी।

                               प्रीति अरुण त्रिपाठी


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