साहित्य चक्र

28 April 2020

रेत



रेत पर बने तंबू को तना देखा तो
एहसास हुआ कि
इनका पूरा जीवन इसमें शामिल है
आज यहां तान लिया है
कल कहां ठिकाना होगा पता ही नहीं...

समय की कोई सीमा नहीं
जो इनको बांध सकें
रेत की तरह फिसलता जा रहा जीवन
रुकना यह न जान सके.....

उनकी तो आंखों की नमी भी
जैसे सूख चुकी है
दिन में गर्म रेत की तपन में
इनकी दुनिया सिमट चुकी है...

इन बंजारों के मासूम बच्चों की
आंखों में लाखों सवाल
उनके अंधेरे जीवन में उजाला
कहां से लेकर आऊं
ऐसा उनका जीवन क्यों
क्या उनको समझाऊं....

रेत के घरौंदे कभी बसते नहीं
बस यूं ही बनते बिगड़ते हैं
फिर भी वह उसमें खुशियां ढूंढ लेते हैं....

दीपमाला पांडेय


No comments:

Post a Comment