साहित्य चक्र

28 April 2020

गज़ल - ज़ालिम ज़माना”




ज़ालिम ज़माना बेरुखी खूब कर गया।
आशियां छीना मेरा, बेघर कर गया।।

सुना था रुसवाईयों की भी हद होती है।
पर मेरी बारी ये पार अपनी हद कर गया।।

छोड़ दिया तड़पने को यूँ ही सड़क पर।
कमबख्त ज़ख्म पर फिर ज़ख्म कर गया।।

मैं पूछती ही रह गई कुसूर अपना।
सवाल उल्टे मुझसे ये हज़ार कर गया।।

मुझे तो मालूम ही न हो पाया कुसूर मेरा।
और ये बर्ताव इतना क्रूर कर गया।।

आज हालात इस कदर हो गए दिल के।
कि आह निकलती नहीं, बेजुबां कर गया।।

सूख गया 'कला' आँसूओं का सैलाब भी।
बेदर्दी ये ज़माना क्या कमाल कर गया।।

                                                        कला भारद्वाज


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