कितना अजीब सा शब्द है,
फ़र्क जब हमें किसी बात का फर्क पड़ता है,
तो उससे जुड़ी हर बात कभी खुशी तो कभी गम दे जाती है,
कभी नग़मे तो कभी खुशरंग तराना।
जब फर्क पड़ता है, तो ही कोई अपना समझा जाता है,
वरना सब बेगाने ही तो है, इस दुनिया में।
लाख खून के रिश्ते हो लेकिन अगर उन्हें आपके होने न होने से फर्क न पड़े, तो वो रिश्ते भी बेगाने लगने लगते है।
और वही अगर कोई अजनबी मिल जाये,
जिसे पहले न देखा, न जाना,
लेकिन आपकी कही गई बातो से उसे फर्क पड़े,
तो वह अपना सा लगने लग जाता है।
क्या इतना ही जरूरी होता है फ़र्क ?
आखिर फ़र्क है क्या ?
क्यो इसके होने से कोई दुखी है तो कोई इसके न होने से निराश बैठा है?
आखिर क्यों सबके लिए इतना जरूरी है फ़र्क पढ़ना ?
या फ़र्क बस एक दुनियाँ का छलावा है।
रिश्ते की बुनियाद फर्क पर नही टिकी होती है,
यदि ऐसा है तो उस बेटे को क्यों फर्क नही
पड़ता जो जन्म देने वाली माँ को ही घर से निकाल देता है।
इस स्थिति में एक ही बात सही सिद्ध होती है,
की उसे अपनी माँ की उपस्थिति से फर्क नही
पड़ता और जब फर्क नही पड़ता तो
उसकी बुद्धि शिथिल हो जाती है।
उसे रिश्तों की एहमियत समझ नही आती।
और सिर्फ इस एक शब्द फ़र्क की वजह से अविभाजित होने वाला रिश्ता टुकड़ो में बट जाता है।
ममता मालवीय
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