मज़दूर
फ़टे कपड़े से बदन ढका है
बासी रोटी से पेट अधभरा है
संतुष्ट है वो ऐसे जीवनयापन में
जीवन कहाँ साधारण उसका है
बनाता जो छत दूसरों के लिए
झोंपड़ी के लिए तरसते देखा है
गर कहता नहीं मज़दूर दर्द अपना
दर्द उसको अथाह होता है
रखता है शायद उम्मीद कोई
वरना मन ही मन खूब रोता है
मुँह फेर लेता हर शख्स उससे
वो हँसकर सबसे मिलता है
देखे आस भरी नज़रों से
दुत्कार के हर कोई जाता है
कट ही जाता जीवन उसका
पर क्या ये जीवन कहलाता है
मिला आजीवन संघर्ष ही उसको
मजदूर घुटकर यूँ ही मर जाता है
विनीता पुंढीर
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