साहित्य चक्र

23 October 2020

।। प्रेम ।।



प्रेम- प्रेम करता रहता मानव, 
असल में प्रेम कहाँ समझ पाया है। 
मात्र तन को छूना ही प्रेम नहीं,
क्या मन को भी  छू पाया है? 
प्रेम पंछी उन्मुक्त गगन का, 
बांध  सके न  कोई डोर, 
पिया की खुशी जहाँ दिखे, 
विचरे प्रेम है उसी ओर। 
बस पाना खोना प्रेम कहाँ, 
प्रेम तो भाव है अंतर्मन का। 
गहरा सार  लिए है प्रेम, 
ये रिश्ता नहीं है मात्र तन का। 
प्रेम न देखे जाति- धर्म, 
और  देखे न कभी उम्र।
कब प्रवाहमय में हो जाए, 
रहती न किसी को खबर। 
जरूरी नहीं कि जीवन में, 
विवाह बंधन से मिल जाए प्रेम। 
त्याग समर्पण जहाँ  मिले,
वहीं पुष्प सा खिल जाए प्रेम। 
ढाई आखर प्रेम के, 
मानव जीवन आधार। 
प्रेम चाहे बस प्रेम सबसे, 
होए न कोई विकार। 
प्रेम की परिभाषा साधारण, 
बस निश्छल हो प्रेम।
सम्मान करें एक दूजे का, 
कहीं पनप न पाए अहम।

                                           कला भारद्वाज


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