आग
तुम जिस रूप में रहोगे
मैं स्वीकार कर लूंगी
अगर धधकती आग की ज्वाला
बन जाओ तुम तो
बारिश की बूंद बन
तुम को शांत कर दूंगी.....
तुम नाव हो तो मैं
पतवार बनूंगी
तुम बिन मैं नहीं
मुझ बिन तुम नहीं
बस यही कहूंगी....
हमारे प्यार की इमारत की
नीव है हम दोनों
यह जीवन का सत्य
अंगीकार कर लूंगी....
कहना चाहती हूं कुछ
थोड़ा मुझे भी समझना
नए परिवेश में
तुम्हारे साथ के बिना
अकेले कैसे रहूंगी...
डरती हूं दुनिया के रस्मों रिवाजों से
बंद होते घर के दरवाजों से
क्योंकि घर की आग में मैंने
बेटी को नहीं........
सिर्फ बहू को जलते देखा है..
दीपमाला पांडेय
No comments:
Post a Comment