साहित्य चक्र

28 April 2020

तुम को शांत कर दूंगी

आग

तुम जिस रूप में रहोगे
मैं स्वीकार कर लूंगी
अगर धधकती आग की ज्वाला
बन जाओ तुम तो
बारिश की बूंद बन
तुम को शांत कर दूंगी.....

तुम नाव हो तो मैं
पतवार बनूंगी
तुम बिन मैं नहीं
मुझ बिन तुम नहीं
बस यही कहूंगी....

हमारे प्यार की इमारत की
नीव है हम दोनों
यह जीवन का सत्य
अंगीकार कर लूंगी....

कहना चाहती हूं कुछ
थोड़ा मुझे भी समझना
नए परिवेश में
तुम्हारे साथ के बिना
अकेले कैसे रहूंगी...

डरती हूं दुनिया के रस्मों रिवाजों से
बंद होते घर के दरवाजों से
क्योंकि घर की आग में मैंने
बेटी को नहीं........
सिर्फ बहू को जलते देखा है..

दीपमाला पांडेय

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