साहित्य चक्र

30 April 2020

मृदुल कूक




तुम कूक उठी
मृदुल-मृदुल
ये गान तुम्हारा अमर रहे |
प्रेमीजन सुन कूक तुम्हारी मगन रहे ||


तुम काली-काली
रुप न देखा जग
स्वर उतर जाये उर |
जैसे प्रेमी की हूक अमर ||


स्वच्छ गगन तले
घने पातों के बीच छिपे
कंठ तुम्हारा अमृत बर्षाये |
गा-गाकर अमर गान स्वयं ही हर्षाये ||


कोकिल प्यारी
श्याम छवि न्यारी
गूँज रही बागों में ध्वनि तुम्हारी |
तुम गाओ नित-नित, हम सुनेंगे मृदुल कूक तुम्हारी ||


                                         मुकेश कुमार ऋषि वर्मा


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