साहित्य चक्र

18 April 2020

अकेले खड़े हैं

"अल्पविराम" 
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खाली खाली पड़ी हैं सड़कें,
दूर दूर तक फ़ैली वीरानी,

अकेले खड़े हैं दरख़्त कुछ ऐसे,
बिन पत्तों के सिसकते तड़पते,

अंजान अनहोनियों का है अंदेशा,
घायल हवाओं ने दिया सन्देशा,

कैसी स्याह रातों का बसेरा,
दरो दर  सन्नाटों का सवेरा,

अनायास ठिठुरन क्यूँ आयी?
बिन मौसम बदरी क्यूँ छाई?

जन-जीवन है ठिठका-ठिठका,
हर शख़्स है घर में ही बिदका,

"अल्पविराम" पर आ कर है रुकी,
भागती दौड़ती ये जिंदगी!

क्षण-भर में परिवेश बदलेगा,
वक़्त कब, कौन सा चोला पहनेगा?

नया मिज़ाज़ है आज शहर का,
नया रिवाज़ है आज  फासलों का,

देखें कल किसका सूरज फिर निकले,
उजालों में ना सही, अँधेरों से ही निकले!


                                                 सीमा चोपड़ा


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