साहित्य चक्र

02 May 2020

भारी बोझे

 मजदूर


 कभी इंटे उठाता।
 कभी तसले ,
मिट्टी  के भर -भर ले जाता।

 पीठ पर लादकर ,
 भारी बोझे,
 वह चंद सिक्कों के लिए ,
एक मजदूर ,
कितना मजबूर हो जाता।

ना सर्दी ,
ना गर्मी से घबराता।
मजबूरी का ,
फायदा ठेकेदार उठाता।

इतने पैसे ......नहीं मिलेंगे।
मन मारकर ,
जो देना है ..........!!!!!!!!
दे दो मालिक ,
कह कर चुप रह जाता।

 मजदूर अपनी,
 मेहनत का ,
 आधा हिस्सा भी ना पाता।
 कितना मजबूर होकर रह जाता।‌।


                                                   प्रीति शर्मा "असीम "


No comments:

Post a Comment