साहित्य चक्र

19 April 2021

ये लाल रंग...



जो  बहती रक्तिम धारा 

धारती मैं तुम्हें कैसे सारा 

रक्त कणों से कर सिंचित 

नव पुष्प खिलाती हूँ प्यारा


जो बहता धमनियों में तुम्हारी 

रक्त की पवित्र बूंदें है सारी 

जो बहे मेरे अंतस से तो 

कैसे अपवित्र हो जाती नारी


कन्या होती देवी का रूप 

पत्थर में भी देवी का स्वरूप

पर देवी जो जाती मंदिर तो

रोकते किस परिणामस्वरूप 


अछूत जैसे किया कोई पाप

मेरी पहचान ही हो गई श्राप 

तेरी पहचान भी करती सृजन 

वरदान क्यूँ बन गया अभिशाप


एक बार कभी तुम भी तो बहो 

नौ माह नहीं एक माह तो सहो

वो दर्द पीड़ा चुभन वो जलन 

कैसे हो सहती कभी तो कहो 


                               रेखा ड्रोलिया 

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