साहित्य चक्र

19 April 2021

"कर्तव्य बोध"


शुभम की अस्पताल से छुट्टी हो गई थी। उसके पिता ने फोन पर बताया कि वो लोग शुभम को लेकर घर जा रहे थे। मुझे सूचित करने के लिए फोन किया था। मैं ऑफिस में बोलकर तुरंत अस्पताल जाने के लिए निकल गया। मैं चाहता था कि जाने से पहले एक बार शुभम को मुस्कुराते हुए देख लूं। चार दिन से ऑफिस के बाद रोज़ उससे मिलने चला जाता था। एक रिश्ता सा बन गया था उसके साथ। दुबला पतला सांवला सा लड़का। कम ही बोलता, जितना पूछो उतना ही जवाब देता। बीच बीच में मोबाइल हाथ में उठता और मैसेज टाइप करता। मोबाइल रखकर पास में रखी अंग्रेजी  नोवेल पढ़ता और फिर कुछ सोचने लगता। चेहरे पर स्थिर वही उदासी का भाव। उसे देखकर यही लगता कि जीवन केवल दुख का नाम है। खुशी शब्द जैसे कोरी कल्पना है।

मैं पहुंचा तो शुभम और उसके मम्मी पापा वार्ड के बाहर आते दिखाई दिए। उसके पापा और दोस्त कार में सामान रखने लगे। मम्मी शुभम के पास ही खड़ी थी। मैं कार के पास गया तो उन्होंने अभिवादन किया और मेरे पास ही खड़े हो गए। शुभम के दोस्त उसे घेरकर खड़े हो गए। सब अपने तरीके से उसे समझाने में लगे थे। शुभम नजरें झुकाए सबकी बातें सुन रहा था। उसके चेहरे के भावों में कोई परिवर्तन नहीं था। मैं उसके पिता से बात करते करते उस पर नज़र डाल लेता था। मैं स्वयं को समझा नहीं पाया था कि यह शांत, संतुलित युवक आत्महत्या जैसा कदम उठा सकता है।

मुझे चार दिन पहले अनजान नंबर से आए उस फोन पर हुई बातचीत का एक एक शब्द याद था। फोन करने वाला मेरा एक सहपाठी था। पिताजी से उसने मेरा नंबर लिया था। " तुम्हारे शहर के प्रतिष्ठित मेडिकल कॉलेज में मेरा भांजा पढ़ाई कर रहा है। कल अचानक उसकी तबियत खराब हो गई थी। मेरी बहन और जीजाजी घर से निकल चुके हैं। अंकल से तुम्हारा नंबर लिया जिससे वर्तमान स्थिति पता चल सके।" मैंने ज्यादा बात न करके फोन रख दिया। अपने बॉस से अनुमति लेकर तुरंत मेडिकल कॉलेज पहुंचा। वहां जाकर देखा तो शुभम आईसीयू में था। कल दोपहर उसको अस्पताल में, उसके दोस्तों ने भर्ती करवाया था। उसने आत्महत्या करने की कोशिश की थी। उसके दोस्त कॉलेज में ही थे। उसकी तबियत ठीक नहीं थी इसलिए वो कॉलेज नहीं आया था। उसके एक दोस्त ने अपना मोबाइल देखा तो उसका "गुड बाय" का संदेश देखकर वो घबरा गया। बाकी छात्रों के साथ होस्टल पहुंचा तो शुभम के कमरे का दरवाजा अंदर से बंद था। बिना समय गंवाए दरवाजा तोड़ा तो हृदय विदारक दृश्य था। शुभम अपने बिस्तर पर उल्टा लेटा हुआ था। उसके मुंह से झाग निकल रहे थे और शरीर अचेत था। छात्रों ने तुरंत एंबुलेंस बुलाई और उसे एडमिट करवा दिया। शुभम की हालत बहुत खराब थी। उसके पापा को फोन पर यही सूचना दी गई कि उसका बुखार बढ़ गया है जल्दी आ जाएं।

मेरे पास भी शाम को फोन आया मेरे दोस्त का। घटना को याद करके मेरे पूरे शरीर में एक सिहरन दौड़ गई। तीसरे दिन शुभम को आईसीयू से वार्ड में भेज दिया गया। दवाईयां मानसिक चिकित्सा प्रारंभ हो गई। आज उसकी तबीयत में सुधार देखकर डॉक्टर ने उसे अपने माता पिता के साथ गृहनगर जाने की अनुमति दे दी थी। उसके माता पिता भी जल्दी घर वापिस जाना चाहते थे। मैं खुश था कि शुभम की जान बच गई थी और वह अब स्वस्थ हो रहा था लेकिन उसके इस घटना को अंजाम देने का कारण मैं नहीं समझ पाया था अभी तक। दोस्तों के अनुसार वह पढ़ाई का दबाव सहन नहीं कर पा रहा था। फिर पीजी की प्रवेश परीक्षा को लेकर भी तनाव में था। लेकिन यह संघर्ष तो उसके साथियों के लिए भी तो था फिर शुभम ने ही ऐसा कदम क्यों उठाया ? घर पर वह और उसकी बहन दो ही बच्चे थे। माता पिता ने उनकी परवरिश में कोई कसर नही छोड़ी थी। फिर यह स्थिति मेरी समझ के बाहर थी।

शुभम के पिता कार में बैठ गए थे। उसकी मम्मी पीछे वाली सीट पर उसके साथ ही बैठने वाली थी। शुभम दोस्तों को हाथ हिलाकर कार की ओर बढ़ा तभी पीछे से किसी ने आवाज़ लगाई," डॉक्टर शुभम, मैं आ गया हूं।" शुभम के साथ साथ मैंने भी पीछे मुड़कर देखा। व्हील चेयर पर बैठे एक सज्जन शुभम को आवाज़ लगा रहे थे। शुभम उनकी ओर चल दिया। मैं और शुभम की मम्मी भी पीछे पीछे चल रहे थे। उनके पास पहुंचे तो वो सज्जन पहले हंसे," डॉक्टर साहेब बहुत दुबले दिख रहे हो।" शुभम ने जवाब दिया," अंकल थोड़ा बीमार हो गया था। बस इसीलिए।" वो सज्जन काफी हंसमुख लग रहे थे। फिर बोले," जल्दी ठीक होइए जनाब, अब हमारी तीमारदारी भी करनी है आपको।" शुभम चुप था। उसके पापा भी वहीं पर आ गए थे। उन्होंने उन सज्जन की बात का जवाब दिया," दरअसल शुभम छुट्टी लेकर हमारे साथ घर जा रहा है कुछ दिनों के लिए।" उन सज्जन के साथ जो व्यक्ति अब तक चुप थे, वही बोले," कोई बात नहीं पापा, दूसरे डॉक्टर हैं ना, हॉस्पिटल में। इनकी तबीयत ठीक नहीं लग रही है।" उन्होंने व्हील चेयर अस्पताल की ओर बढ़ा दी। शुभम ने चुप्पी तोडी," आप चलिए अंकल मैं अपना सामान लेकर आता हूं।" उसने कार की डिक्की खोलकर अपना सामान निकाला और हॉस्पिटल की ओर मुड़ गया। मैं उसके पापा के साथ उसके पीछे चल रहा था। मैंने उनको शुभम को कुछ भी कहने से रोक दिया। हॉस्पिटल में प्रवेश करने से पहले शुभम रुका और पीछे मुड़ा," सॉरी पापा, आपके साथ नहीं जा सकता हूं। ये जो अंकल अभी आए हैं, किडनी के मरीज हैं। डेलिसिस पर चल रहे हैं। हो सकता है कि यह इनका आखिरी डेलीसिस हो। मैं उनके पास रहना चाहता हूं।" शुभम के पिता के बोलने से पहले ही मैंने बोल दिया," एकदम सही सोच रहे हो बेटा। कर्तव्य सबसे पहले आता है।" शुभम वार्ड में चला गया। मैं भी उसके पापा के साथ वार्ड के बाहर खड़े होकर उसकी उन सज्जन से बातचीत सुन रहा था। कोई पुराना किस्सा सुना रहे थे और शुभम बच्चों की तरह हंस रहा था। हम लोग वापिस आ गए।," क्या सोच रहे हैं  भाईसाहब ?" मैंने शुभम के पिता से प्रश्न किया। ," बस यही कि बच्चों को सब कुछ दिया पर उनका दोस्त नहीं बन सका।" उनके स्वर में छिपी वेदना सुनकर मुझे विश्वास हो गया कि शुभम दुबारा ऐसा कदम नहीं उठाएगा। 


अर्चना त्यागी


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