साहित्य चक्र

18 April 2021

यह कैसा वैशाख ?




जिंदगी की बैसाखियों पर,   
चलकर यह आज,
कैसा वैशाख  आया ?

न आज भांगड़े हैं।
न मेले सजे हैं ।

फसल कटने -काटने का ,
किसे ख्याल आया।।

ज़िंदगी की बैसाखियों पर,   
चलकर आज,
कितना मजबूर वैशाख आया।

 गेहूँ की फसल का ,
 घर के ,
आंगन में आज न ढेर आया ।

कोरोना विस्फोटक हुआ।
मेलों की रौनक का ,
न किसी को चाव रहा।
जिंदगी को ,
पिछले साल से,
कहीं ज्यादा मजबूर पाया।

 दिहाड़ी -दार अपना दर्द ,
ढोल की तान पर ना भूल पाया।

 जिंदगी की बैसाखियों पर,
 चलकर यह कैसा वैशाख आया।

वह हल्की गर्म हवाओं के साथ,    
न तेरी धानी चुनर का,
 पैगाम आया ।

यह कैसा ?
उदास ?
ऊबा हुआ वैशाख आया।


                                    प्रीति शर्मा "असीम"


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