जिंदगी की बैसाखियों पर,
चलकर यह आज,
कैसा वैशाख आया ?
न आज भांगड़े हैं।
न मेले सजे हैं ।
फसल कटने -काटने का ,
किसे ख्याल आया।।
ज़िंदगी की बैसाखियों पर,
चलकर आज,
कितना मजबूर वैशाख आया।
गेहूँ की फसल का ,
घर के ,
आंगन में आज न ढेर आया ।
कोरोना विस्फोटक हुआ।
मेलों की रौनक का ,
न किसी को चाव रहा।
जिंदगी को ,
पिछले साल से,
कहीं ज्यादा मजबूर पाया।
दिहाड़ी -दार अपना दर्द ,
ढोल की तान पर ना भूल पाया।
जिंदगी की बैसाखियों पर,
चलकर यह कैसा वैशाख आया।
वह हल्की गर्म हवाओं के साथ,
न तेरी धानी चुनर का,
पैगाम आया ।
यह कैसा ?
उदास ?
ऊबा हुआ वैशाख आया।
प्रीति शर्मा "असीम"
No comments:
Post a Comment