दीपक करता उजाला सर्वस्व
तू क्यों बना तल का अँधेरा
खोज अपनी नवल किरण
निज नियति का जगा सवेरा
नर्म मिट्टी में ही अंकुर फूटते
रच विश्वासों का नीड़
बाँध रिश्तों का बंदनवार
हर दुविधाओं की पीड़
मुसीबत से बींधी ज़िन्दगी
तूफ़ानों में कश्ती खेले
तू जलता सूर्य जवानी का
दुनिया को नई आवाज़ देले
नया स्वर माँगता प्रमाण
कर्मठता का ज्ञात भी तो हो
अम्बर सीस झुकाले
बताने को ऐसी बात भी तो हो
रेखा ड्रोलिया
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