ऐ ज़िंदगी यूँ न भाग,
ज़रा ठहर!
चल आहिस्ता – आहिस्ता।
आ साथ चलते हैं इस रास्ते पर,
मुझे भी जाना है मंजिल तक।
तू यूँ भागेगी तो कैसे चलूँगी,
कैसे पाऊँगी मैं मंज़िल अपनी?
भागते – भागते तेरे पीछे कहीं,
कुछ छूट न जाए मेरे पीछे।
कोई फर्ज़ मेरा अधूरा न रह जाए,
कहीं में अपनों को न भूल जाऊँ।
या कहीं ऐसा न हो जाए कि
मुझे मंज़िल भी न मिले,
मैं अपनी को भी खो दूँ,
और मेरी मौत आ जाए।
यही सोच तुम से की गुज़ारिश
कि ज़रा ठहर न!
आ चलते हैं आहिस्ता – आहिस्ता।
“कला भारद्वाज”
No comments:
Post a Comment