ठंडी होती शाम की रेत में फैला बीच
जुहू को भागने का मौका देता है
अलसाई भीड़ प्राकृतिक से अप्राकृतिक होती
सच के संदर्भों की निर्मम व्याख्या है
स्वाद की अठखेलियां लहरों के मध्य
जीभ की खुरापाती जश्न का बुनती है ताना-बाना
बेसुध भविष्य देह की परतों में
समय की मौलिकता के हस्ताक्षर रचता है
खुली आंखों की बदलती तस्वीर में
आतुर मुंबई टोहती है विस्तार
लौटती लहरों पर फेहरिस्त का कच्चा चिट्ठा
सूरज-चांद की मिल्कियत सा है बहुत कुछ
मखमली दूब सा विस्तारित किनारा
पूरी धड़कनों के साथ माहौल की गति और नवांकुरों का हाल है
मुंबई, गर्भ में पलता अटल खुशियों का स्थापित इंतजार है
जिसके नशे का सुरूर पूरे देश पर चढ़ता है।
डॉ रीता दास राम
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