साहित्य चक्र

28 April 2021

"मैं" स्वाभिमान या अभिमान

भगवद्गीता के कर्म को समझने से पहले "मैं" को समझना अति आवश्यक है।




इस जीवन में आत्मा रुपी पछी एक बड़े से पिंजरे में कैद है। उसे ‘मैं’ ने कैद कर रखा है। ऐसी कोई हवा नहीं चल रही है कि पछी पिंजरा समेत उड़ान भर कर मुक्ति का आनन्द उठा ले। पिंजरे को तोड़ने के लिए ‘मैं’ की दीवार को काटना होगा। ‘मैं’ देखता है, ‘मैं’ ही सुनता है, ‘मैं’ ही महसूस करता है। यहाँ हालत यह है कि ‘मैं’ ही ‘मैं’ हूँ। दूसरा कोई नहीं है।

संसार के चक्र को एक व्यवस्थित विधान के साथ परमात्मा चला रहे हैं। परमात्मा का यह व्यवस्थित धारणीय विधान ही धर्म है। परमात्मा ही है, जो संसार के चक्र को सुव्यवस्थित ढंग से चलाकर उसे नित्य गतिमान रखते हुए संतुलित करते जाते हैं।

हमें यह समझ लेना चाहिए कि जो लोक-परलोक में शुद्ध और विकार रहित हो वही धर्म है। धर्म के उन्नत होने पर हिंसा खत्म होती है और अहिंसा मजबूत होती है। धर्म ही सभी जीवों का संरक्षण करता है। यह जीव ही है, जो धर्म को धारण करता है। इसी धर्म के कारण जीव का वैभव बढ़ता है। धर्म से ही मैत्रीभाव, क्षमा, दया, पवित्रता, विद्या, बुद्धि और बल के साथ सत्य की प्राप्ति होती है। जो धर्म को धारण करेगा, वह शरीर, मन और वचन से पवित्र रहेगा। जो धर्म के विपरीत हो, वह अधर्म कहा जाएगा। आत्मनिवेदन के भाव में जब इन्द्रियां वश में रहती है, तो हिंसा, झूठ, कपट, छल, चोरी और अपवित्रता तथा सभी भोगों के प्रति स्वच्छन्दता समाप्त हो जाती है। साधु पुरुषों और जीवों की रक्षा धर्म करता है। इसे हम ऐसे भी समझ सकते है कि धर्म रुपी शरीर जो भगवान का शरीर है, उनकी रक्षा करता है। अधर्म होने पर वही धर्म रुप से शरीर धारण कर परमात्मा दुष्टों का संहार करते है। भगवान अधर्म का शमन करके धर्म की स्थापना करते है। संसार का स्वरुप परिवर्तनशील है। धर्म और अधर्म दोनों ही परमात्मा की निगाह में रहते हैं। दोनों में से उन्हें अपने स्वभाव का स्वरुप धर्म ही प्रिय है। 

धर्म की भूमिका केवल आध्यात्मिक उन्नयन के लिए नहीं है, बल्कि सामाजिक उन्नयन में भी धर्म का अत्यधिक महत्व है। अशान्ति पैदा करने वाले उपादान आज पूरे विश्व में सर्वत्र उपस्थित है। इसका कारण तृष्णा, प्रबल मिथ्या भोगेच्छा, अहंकार, द्वेष, ईर्ष्या, लोभ और राग है। लंबे समय से इन विसंगतियों को दूर करने में समाज जब चूकता है, तब अधर्म अपनी जड़े मजबूत करने लगता है। बद्धात्माओं की इस भौतिक जगत में भौतिक प्रकृति पर प्रभुत्व प्राप्त करने की इच्छा बहुत गहरी होती है। प्रत्येक मनुष्य सम्पत्ति एकत्रित करना चाहता है। वह अपनी अधिकतम सीमा तक सुख भोग लेना चाहता है। मानव की जगत में हर प्रकार से सुखी होने की इच्छा प्रबल होती है। ये इच्छाएं ही भौतिक बंधन का कारण हैं। सभी प्रकार की भौतिक इच्छाओं को निष्फल करने का एकमात्र साधन धर्म को धारण कर भगवान की भक्ति करना है। इसीलिए ज्ञानी और संत जन कहते है कि सदाचार का पालन करते हुए ईश्वर की भक्ति और असहायों की मदद कर उनकी सेवा में मनुष्य को सदा तल्लीन रहना चाहिए। 

दरअसल, हमें जब तक यह अहसास नहीं हो जाता है कि ईश्वर ही सब कुछ कर रहे है। वह यन्त्री हैं और हम यन्त्र मात्र हैं। सभी को अपना मानकर प्रेम करना और किसी पर भी अपना अधिकार न मानना ही जीवन मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करता है। इन्हीं कारणों से हम धर्म संरक्षण को अपने जीवन से जोड़कर देखते है। इस जीवन में आत्मा रुपी पछी एक बड़े से पिंजरे में कैद है। उसे ‘मैं’ ने कैद कर रखा है। ऐसी कोई हवा नहीं चल रही है कि पछी पिंजरा समेत उड़ान भर कर मुक्ति का आनन्द उठा ले। पिंजरे को तोड़ने के लिए ‘मैं’ की दीवार को काटना होगा। ‘मैं’ देखता है, ‘मैं’ ही सुनता है, ‘मैं’ ही महसूस करता है। यहाँ हालत यह है कि ‘मैं’ ही ‘मैं’ हूं। दूसरा कोई नहीं है। यह मेरा मकान है, यह मेरा पुत्र है, यह धन मेरा है। यह सब पिंजरे की दीवार को मोटा कर कैद खाने को चमकाते रहते है।

लेकिन जब यह आभास होने लगे कि यह ‘मैं’ मेरे में है, वह नित्य शाश्वत और ज्ञान स्वरुप है तो समझ लेना चाहिए कि पछी पिंजरे समेत उड़ान भर रहा है। हम धर्मशालाओं में धार्मिक आचरण करते हुए नैतिकता का पालन करते हुए कुछ समय के लिए ठहरते है, फिर उसे छोड़कर चल देते है। धर्मशाला को लेकर यह भाव नहीं आता है कि यह धर्मशाला मेरा है। इस संसार में विचरण करने के लिए परमात्मा से अलग हुआ यह शरीर धर्मशाला है, जिसमें आत्मा रुपी पंछी कुछ समय के लिए ठहरता है, फिर नैतिकता के साथ ईमानदारी पूर्वक अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए धर्मशाला रुपी शरीर को छोड़कर चल देता है। यहाँ व्यर्थ का मोह, ममता, लगाव और रिश्तों का लोभ धर्मशाला को कैदखाने में तब्दील कर देता है। इसीलिए इसमें रह रहा आत्मा रुपी पछी इस कैद से आज़ाद नहीं होना चाहता है। कोलाहल सभी प्रकार के सृजन में बाधा उत्पन्न करता है। जीवन में जब भी दूसरा कोई पदार्पण करता है तो खुशी उत्पन्न होती है। जब कोई जाता है तो विक्षोभ।

स्वर-लालित्य, विद्या-कला और प्रेम की उत्कट अभिव्यक्ति इसी आने और जाने में समाहित रहता है। जीवन और कर्म, भक्ति और शक्ति, सर्जन और विसर्जन का सुंदर संयोग जीवन की संरक्षित दृष्टि को विशिष्ट बनाती है। इस धर्म संरक्षण में स्नेह, सौंदर्य, स्फूर्ति, समन्वय और स्पर्श की सुमधुर सृष्टि है।

                                        प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"


सुंदर ग़ज़ल आपके लिए प्रस्तुत है




खेलन को होली आज  तेरे  द्वार आया हूँ।
खाकर के गोला भांग का मैं यार आया हूँ।।

मानो बुरा  न  यार  है  त्यौहार  होली का।
खुशियाँ मनाने अपने मैं परिवार आया हूँ।।

छिपकर कहाँ है बैठा  जरा सामने तो आ।
पहले भी रंगने तुझको मैं हर बार आया हूँ।।

चौखट पे तेरे आज भी रौनक है फाग की।
शोभन में पाने प्यार  मैं  सरकार आया हूँ।।

होली  निज़ाम  खेल के  मस्ती में मस्त है।
कुछ तो करो  कृपा  तेरे  दरबार आया हूँ।।

                                निज़ाम-फतेहपुरी


27 April 2021

वैक्सीन चुनें, वायरस नहीं




जीवन रक्षा के इस अनुपम
सौभाग्य का उत्सव मनाएं ।
वैक्सीन चुने ,वायरस नही
टीका लगवाने जरूर जाएं ।।

प्राकृतिक  ऑक्सीजन  के
लिए पेड़ो को जरुर बचाएं ।
जन्मदिन हो  या  कोई पर्व
हम एक पौधा जरूर लगाएं ।।

कोरोना का  शमन  करने  के 
लिए जरा सावधानी अपनाएं ।
घर में रहें,सुरक्षित रहें,सोशल
डिस्टेंस रखें,मास्क जरूर लगाएं ।।

अनमोल  जीवन  को  बचाने
आज ही वैक्सीन जरूर लगवाएं ।
भीडभाड़ से बचें ,सावधानी रखें
टीका उत्सव  को  सफल बनाएं ।।


                  गोपाल कौशल

26 April 2021

पीड़ा




जैसे छीन रहे हो मुझसे उन्हें
वैसे खुदा तुमसे
कोई अपना छीने तो
क्या तुम्हें दर्द नहीं होगा ?

जैसे जी रहा हूं मैं
तडफ़ तडफ़ उसके बिना
अगर तुम्हें भी जीना पड़े
किसी अपने के बिना तो ?

जैसे मुस्कुरा रहा हूं
छुपाए सीने में दर्द अपने
अगर तुमको भी जीना पड़े
किसी अपने के लिए दर्द में तो ?

जैसे मर रहा हूं हर पल
मैं उनके बिना
अगर तुम्हें नहीं जीना पड़े
हर पल किसी अपने के बिना तो ?

                                     राजीव डोगरा 'विमल'


25 April 2021

अम्मा की याद आयी है




दिल में आज फिर घुटन सी है
पलकें भी कुछ नम सी है
सूरज भी बिछड़ता लग रहा है किरण से
हवा भी जोरों से गरमाई है
शायद अम्मा को मेरी याद आयी है ।
एक निवाला भी हाथों में भारी सा है
घर बहुत बहुत खाली सा है
कुछ अधूरा सा थाली में है
पानी भी कम सुराही में है
चूल्हे की आग भी शरमाई है
शायद अम्मा को मेरी याद आयी है।

...

पौधे हैं सूखे,अटरिया भी खाली
तुलसी में ना है कुमकुम की लाली
मुरझायें हैं फूल,सूखी है डाली
वर्षों की प्यास क्यारी के कटान से बाहर आई है
शायद अम्मा को मेरी याद आयी है।

                                            नेहा अपराजिता


अपनों के बीच , खुद को खोजती नारी




जिन्दगी कहां से कहां ले आती है
कभी नाजों से पली  
दुनिया के हर रंजो गम से दूर
 स्वच्छंद इठलाती हुई
 हर किसी की खुशियों को संजोए 
आज अपने ही अस्तित्व को 
खोज रही है नारी
दिखावे की जिंदगी,
दिखावे के रिश्ते,
ताउम्र चलते हैं साथ उसके
सब के मन की कर ले  
तो सही है
वरना कुछ पल अपने लिए जी ले
या फिर सही - गलत का स्मरण करा दे
तो औकात दिखा दी जाती है उसकी
जैसे कि कोई वजूद ही न हो उसका
शास्त्र कहते हैं" यत्र नार्यस्तु पूजयंते रमंते देवता "
पर क्या सच में नारी पूजनीय मानी जाती है ????
 शायद ही
यहां तो नारी ही नारी की दुश्मन बनी बैठी है
समाज के अन्य वर्ग से अपेक्षा कैसी।
कुछ अच्छा हो तो सबका भाग्य
और कुछ बुरा हो जाए तो .....
तो सिर्फ और सिर्फ नारी को उलाहने
ये है सच्ची तस्वीर हमारे समाज की
शायद सहमत न हों कई लोग
पर गौर से देखिए आस-पास अपने
तस्वीरों का रुख भी कुछ ऐसा ही होगा
जहां दिखावे की जिंदगी तो बहुत होगी
पर सच्चाई से न होगा कोई दूर-दूर तक वास्ता।
सच में अपनों के बीच
खुद को कभी-कभी खोजती है नारी।

                                                   तनूजा पंत

वक्त




वक्त बदलेगा,
सब कुछ बदल जाएगा,
आज तेरे साथ हूं,
फिर तेरे सामने हूंगा,
आज तेरी नजरों के सामने हूं ,
फिर सामने होते हुए भी दूर हूंगा,
आज तेरे साथ चल रहा हूं,
फिर एक नए पथ पर हूंगा ,
आज तेरी यादों में हूं,
फिर यादों से कोसों दूर हूंगा ,
आज तेरी हंसी की वजह हूं ,
फिर तेरी खामोशी का कारण हूंगा,
आज सिर्फ तेरा हूं,
फिर पता नहीं किसका हूंगा,
मैं तो वही हूं और वही रहूंगा,
बस वक्त बदल जाएगा,
साथ चलने वाला हमसफ़र
कोई और होगा
बस तुम नहीं होगे।


                                              अमित डोगरा


मोहब्बत





हर लम्हा तुम्हारी यादो में गुजरता है,
तुम्हारे पास होने का अहसास दिलाता है,
तुम्हारी मीठी मीठी सी बातों का अहसास दिलाता है,
तुम याद करते हो, तो सावन की याद आती है,
वो पहली बारिश में भीगना याद आता है,
तुम्हारा अपने आप में खो जाना याद आता है,
मदहोश करती है तुम्हारी वो नशीली आखे,
उन आखो में खो जाने को दिल चाहता है,
तुम जिन रास्ते पर मेरे साथ साथ चले,
वो रास्ते आज भी बहुत याद आते है,
हमारा वो चोरी चोरी मिलना एक दूसरे से,
वो प्यार भरी बरसातों में भीगना,
प्यार में बिताये हर अच्छे बुरे लम्हे,
बहुत याद आते है,
यादो के झरोखों के हर मोती,
में समेटना चाहती हूँ,
तुम्हारी  हर अच्छाई को अपना मंजर बनाकर,
हम उन अच्छाई में डूब जाना चाहते है,
सदिया बीत जाती है किसी को अपना बनाने में,
हम तुम्हे अपना बनाना चाहते है,
तुम्हारी प्यार भरी हर हरकत पर,
हम कुर्बान होना चाहते है ।।

                                   गरिमा लखनवी


जुहू बीच मुंबई



ठंडी होती शाम की रेत में फैला बीच
जुहू को भागने का मौका देता है

अलसाई भीड़ प्राकृतिक से अप्राकृतिक होती
सच के संदर्भों की निर्मम व्याख्या है

स्वाद की अठखेलियां लहरों के मध्य
जीभ की खुरापाती जश्न का बुनती है ताना-बाना

बेसुध भविष्य देह की परतों में
समय की मौलिकता के हस्ताक्षर रचता है

खुली आंखों की बदलती तस्वीर में
आतुर मुंबई टोहती है विस्तार

लौटती लहरों पर फेहरिस्त का कच्चा चिट्ठा
सूरज-चांद की मिल्कियत सा है बहुत कुछ

मखमली दूब सा विस्तारित किनारा
पूरी धड़कनों के साथ माहौल की गति और नवांकुरों का हाल है

मुंबई, गर्भ में पलता अटल खुशियों का स्थापित इंतजार है
जिसके नशे का सुरूर पूरे देश पर चढ़ता है।

डॉ रीता दास राम


स्त्री द्वारा ओढ़ा हुआ पुरुषत्व की कहानी



बदल जाने की फितरत थी उसकी
रगों में बसा उसका हुनर बोलता था

गलत सही की परख कैसे समझता
खुद ही जब गलतियों से लिपटा हुआ था।

दिल में कुछ दिमाग में कुछ और बातें लेकर 
बिना नजर मिलाए वो बातें किया करता था 

हम आपका सब कुछ छिनते जाएं
मगर आप मुस्कुरा कर देते ही जाइएगा

आपके घाव नासूर ही न बनते जाएं 
मगर अपना इलाज हमसे ही करवाइएगा 

ना हाथ पकड़ेंगे ना साथ निभाने आयेंगे 
मगर आप तड़पयिगा तो सिर्फ हमें ढुंढिंएगा

हम आप पर सितम ढाते ही जाएं
मगर आप हमसे ना दगा किजीएगा

ये दुनिया अगर दुनिया जैसी कसूरवार है 
तो आप भी गुनहगार कहलाइएगा

मौत सामने हो तो मर जायिएगा
मगर आप इंसान नहीं खुदा ही बने रहिएगा ।।

                                                
                        रानी यादव


लेखन मात्र कमाई का जरिया नहीं



अब जब नोटफ्री आंदोलन के ज़रिये इस विषय पर ज़ोरदार चर्चा छिड़ चुकी है और आंदोलन के समर्थकों द्वारा बहुत आक्रामक और उपहासपूर्ण स्वर में इस विषय में तर्क दिए जा रहे हैं तो इसके कुछ और केंद्रीय आयामों पर बात कर लेना चाहिए। यहाँ पर सबसे बुनियादी प्रश्न यह है कि लेखक क्यों लिखता है? क्या वह आजीविका के लिए लिखता है? मान लीजिये कोई व्यक्ति आजीविका के लिए कोई कार्य करता है। वह एक दुकान लगाता है। उससे अगर कोई भलामानुष पूछे कि यह कार्य क्यों करते हो, तिस पर वह जवाब देगा- रोज़ी-रोटी के लिए। अगर उससे कहा जाए कि तुम्हें जितनी आमदनी होती है, वह मुझसे ले लो, लेकिन यह दुकान मत लगाओ- तब वह क्या करेगा? सम्भव है वह पैसा ले ले और दुकान ना लगाए। किंतु अगर लेखक से कहा जाए कि फलां पुस्तक के प्रकाशन से तुम्हें जितनी आमदनी होगी, वह पैसा मुझसे ले लो किंतु पुस्तक मत लिखो- तब क्या लेखक पुस्तक नहीं लिखेगा? अगर वह पुस्तक पैसों के लिए ही लिखी जा रही है, तो सम्भव है वो पैसा ले ले और एक अरुचिकर कार्य करने से अपनी जान छुड़ाए। पर उसके बाद यह भी सम्भव है कि वह अपने समय और परिश्रम का उपयोग वह लिखने में करे, जो वह वास्तव में लिखना चाहता है। इस दृष्टान्त से हमें यह भेद दिखलाई देता है कि लेखन और आजीविका में कार्य-कारण का सीधा सम्बंध नहीं है, भले लेखन से आजीविका मिल सकती हो। किंतु लेखन की तुलना आजीविका के दूसरे साधनों से इसलिए नहीं की जा सकती, क्योंकि जहाँ वो दूसरे साधन विशुद्ध रूप से आजीविका के लिए होते हैं, वहीं लेखन किसी और वस्तु के लिए भी होता है।


मूलतः मक़सद यह स्पष्ट करना है कि लेखक का प्राथमिक दायित्व क्या है। लेखक का प्राथमिक दायित्व है लिखना और अपने लिखे को पाठकों तक पहुँचाना। एक बार यह दायित्व पूरा हो जाए, उसके बाद उसे अपने लेखन से जो धन, मान-सम्मान, सुख-सुविधा, उपहार आदि मिलते हैं, वो अतिरिक्त है, बोनस है। किंतु लेखक जब कोरे काग़ज़ का सामना करता है तब उसके सामने यह प्रश्न नहीं होता कि लिखने से कितना धन-मान मिलेगा, बशर्ते वो बाज़ारू लेखक ना हो। उसके सामने एक ही संघर्ष होता है और वो यह कि जो मेरे भीतर है- विचार, कल्पना या कहानी- उसे कैसे काग़ज़ पर उतारूं कि उसमें मेरा सत्य भी रूपायित हो जाए और पाठक तक भी वह बात किसी ना किसी स्तर पर सम्प्रेषित हो जाए।


यह कल्पना करना ही कठिन है कि आज से बीस साल पहले तक लेखक के लिए प्रकाशन कितना दुष्कर था। वास्तव में इंटरनेट के उदय से पहले लेखन का इतिहास अप्रकाशित पाण्डुलिपियों के ज़ख़ीरे से भरा हुआ है। आज लिखने की सुविधा हर किसी को प्राप्त है- पुस्तक ना सही तो पोस्ट ही सही, किसी पोस्ट पर कमेंट ही सही- किंतु आज से बीस साल पहले प्रकाशित लेखन एक लगभग एक्सक्लूसिव परिघटना थी। तब लेखन का सबसे प्रचलित माध्यम चिटि्ठयाँ ही थीं और लोग बड़े मनोयोग से पत्र लिखते थे। कोई लेख, कविता या कहानी लिखी तो उसे किसी पत्रिका या समाचार-पत्र को भेजते थे, उसे प्रकाशित करने का निर्णय सम्पादक के पास सुरक्षित रहता था। कोई पुस्तक लिखी तो उसकी पाण्डुलिपि भेजते थे, जिसके प्रकाशन का निर्णय प्रकाशक के पास सुरक्षित था। सम्पादक और प्रकाशक का वर्चस्व था, लगभग एकाधिकार था- इस प्रक्रिया में बहुत कम चीज़ें ही प्रकाशित हो पाती थीं। अख़बार में पाठकों के पत्र स्तम्भ में प्रकाशित होना भी तब बड़ी बात होती थी। आज जब सोशल मीडिया ने लेखक के लिए प्रकाशन सर्वसुलभ बना दिया है, उसे अपने लिखे पर तत्काल पाठक मिलते हैं और पाठकों की बड़ी संख्या उसकी पुस्तकों के प्रकाशन का पथ-प्रशस्त करती है- तब लेखक के अस्तित्व का प्राथमिक प्रयोजन- यानी अच्छे से अच्छा लिखना और अधिक से अधिक पाठकों तक पहुँचना- कहीं सरलता से सध जा रहा है। इसके लिए उसके मन में कृतज्ञता का भाव होना चाहिए। तब लेखक का यह कहना कि इसके लिए मुझको पैसा चाहिए, इसीलिए एक अर्धसत्य है क्योंकि इसमें यहाँ पर वह इस बात को छुपा ले जा रहा है कि उसके लिए प्रकाशित होना और पाठकों तक पहुँचना कितना बड़ा सौभाग्य है। और अगर यह ना होता तो वह अपनी रचना को लिए भीतर ही भीतर घुटता रहता।


लेखन की प्रकृति ऐसी है कि उसे दूसरी लोकप्रिय कलाओं- जैसे सिनेमा, रंगमंच, नृत्य या संगीत- की तुलना में कम प्रसार मिलेगा। शेखर एक जीवनी पढ़ने और सराहने के लिए एक विशेष प्रकार की शैक्षिक पृष्ठभूमि की आवश्यकता है, जो कोई नाच-तमाशा देखने, गाने-बजाने का आनंद लेने के लिए ज़रूरी नहीं। एक चलताऊ उपन्यास तक पाठक को खींचकर लाना भी एक सामान्य दर्शक को सिनेमाघर में ले जाने की तुलना में कहीं अधिक दुष्कर है। एक लेखक अपनी कला से कभी भी उतना सफल और धनाढ्य नहीं हो सकता, जितना कि एक फ़िल्म अभिनेता, खिलाड़ी, संगीतकार या नर्तक हो सकता है, बशर्ते देशकाल-परिस्थितियां उसके पक्ष में हों।


नोटफ्री आंदोलन के कर्णधार इन तमाम तर्कों और तथ्यों को नज़रंदाज़ कर देते हैं। इतना ही नहीं, वो यह कहकर परिप्रेक्ष्यों को विकृत भी करते हैं कि लेखक जब किसी कार्यक्रम में जा रहा है तो वो अपना समय दे रहा है, जिसकी क़ीमत उसे मिलना चाहिए। जैसे कि जो आयोजक वह कार्यक्रम कर रहा है, उसके समय का कोई मूल्य नहीं है, या वह निठल्ला है? लेखक यह जतलाता है कि आयोजक को उसकी ज़रूरत है, पर वो यह छुपा जाता है कि उसे भी आयोजक की उतनी ही ज़रूरत है! उसे भी मंच चाहिए, विज़िबिलिटी चाहिए, नए पाठक और नए प्रशंसक चाहिए, उसे भी महत्व चाहिए, जो उस कार्यक्रम से उसे मिल रहा है। यह कार्यालय में काम करने जैसा नीरस नहीं है, जो लेखक यह तर्क देता है कि वह कार्यालय से छुट्‌टी लेकर आ रहा है, इसलिए उसे इसके ऐवज़ में पैसा चाहिए। लेखक को वैसे कार्यक्रमों में जो मान-सम्मान, महत्व-प्रचार मिलता है, उसे हासिल करना आज लाखों का सपना है (और जब लेखक युवा था और अख़बारों में अपनी कविताएं प्रकाशित करने भेजता था और उनके छपने की प्रतीक्षा करता था, तब यह उसका भी सपना हुआ करता था), लेकिन इस सपने को जीने का अवसर जब उसे मिलता है, तो लेखक यह जतलाता है मानो इसका कोई मूल्य ही ना हो, जैसे इसके लिए उसे स्वयं कुछ ना चुकाना हो, उलटे उसे इसके बदले में पैसा चाहिए?

जब लेखक यह कहता है कि मैं पैसा लिए बिना किसी कार्यक्रम में नहीं जाऊंगा तो वह मन ही मन यह रूपरेखा भी बनाता ही होगा कि कितना पैसा? वह अपना एक रेट तय करता होगा। एक बार यह रेट तय होते ही यह निश्चित हो जाता होगा कि कुछ ही आयोजक उसे अफ़ोर्ड कर सकेंगे। किंतु ये जो आयोजक उसे अफ़ोर्ड करेंगे, वो लेखक में निवेश की गई राशि का रिटर्न कैसे पाएँगे (क्योंकि कोई भी लन्च फ्री में नहीं मिलता, यह नोटफ्री आंदोलन के कर्णधारों का प्रिय वाक्य है)। क्या कोई पूँजीपति अपनी जेब से पैसा लगाकर लेखक को एक दिन की वह सितारा-हैसियत दिलाएगा, या वह किन्हीं प्रायोजकों की मदद लेगा? ये प्रायोजक तब उस कार्यक्रम को कैसे प्रभावित करेंगे? क्या लेखक कविता या कहानी-पाठ के बीच में रुककर किसी प्रायोजक के उत्पाद (गुटखा या जूते?) का विज्ञापन भी करेगा? क्योंकि जब पैसे को ही सबकुछ मान लिया तो शर्म-लिहाज़ कैसी? जो आयोजक लन्च दे रहा है, होटल में रूम बुक कर रहा है, हवाई जहाज़ का टिकट दे रहा है, प्रोग्राम के लिए ऑडिटोरियम बुक कर रहा है और आपको लिफ़ाफ़ा भी दे रहा है- वो ख़ुद क्या यह सब फ्री में करेगा, क्या नोटफ्री में उसका स्वयं का विश्वास नहीं होगा?

मैं देख रहा हूँ कि नोटफ्री आंदोलन युवाओं में विशेषकर लोकप्रिय हो रहा है, क्योंकि ये पीढ़ी ही येन-केन-प्रकारेण सफलता की भाषा में सोचती है। किंतु दौर बदलने से दस्तूर नहीं बदल जाता। लेखक क्यों लिखता है, किसके लिए लिखता है, लेखक लेखन से क्या चाहता है- ये बुनियादी प्रश्न अपनी जगह पर तब भी क़ायम रहते हैं- इन्हें कोई बदल नहीं सकता।

मेरी पुस्तक बिके और मुझे उसका पैसा मिले- यह एक बात है- और मेरी पुस्तक कितनी बिकी, उससे मुझे कितना पैसा मिला, यही मैं रात-दिन सोचता रहूँ और पैसा कमाने के लिए ही लिखूँ- ये एक नितांत ही दूसरी बात है।


कोई आयोजक मुझे बुलाए, मान-सम्मान-मंच प्रदान करे और चलते-चलते अपनी सामर्थ्य से मुझे कुछ पैसा भी दे दे- यह एक बात है- किंतु मुझे पैसा दिया जाएगा तो ही मैं आऊँगा, यह भी नहीं देखूँगा कि मुझे बुलाने वाला कौन है, उसकी क्या क्षमता है, उसकी क्या प्रतिष्ठा है, उसके पास कितने उच्चकोटि के निष्ठावान श्रोता हैं- यह एक दूसरी ही बात है। और इन दोनों बातों में ज़मीन-आसमान, आकाश-पाताल का भेद है !




जिस लेखक में इन दोनों में अंतर करने का विवेक नहीं, वो समाज को क्या मूल्य देगा? उसको तब कोई दुकान ही लगा लेना चाहिए, लेखन वग़ैरा उसके बस का रोग नहीं।

प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"



बार्डर vs कोरोना





ओह ! ओह ! ओह !
क्वारंटाइन हुए जाते हैं।
 टेस्ट डराते हैं ।
रिपोर्ट जब आती है ।
पोजिटिव कर जाती है।
कि कोरोना कब जाओंगे ।
कोरोना कब जाओंगे ।।
लिखो..क्या वैक्सीन से जाओंगे।।
 तेरे साथ हर...घर सूना -सूना है ।

अस्पताल के डॉक्टर ने ,
वहां की नर्सों ने,
 हमें रिपोर्ट में लिखा है ।
कि हमसे पूछा है...

किसी की हाफ़ती सांसों ने,
 किसी की खांसी ने ,
किसी की छीकों ने, 
किसी के इंफेक्शन ने ,

किसी के कचरे ने,
कोरोना के चर्चे ने ,
बकबकी  सुबहा ने,
 मितलाती शामों ने ,

डिस्टेंस की रातों ने,
सोशल मीडिया की बातों ने ,
फैली अफवाहों ने,
 मजदूरों की बददुओं ने ,
और पूछा है कम होती कमाईयों ने,

कि कोरोना कब जाओंगे ।
कोरोना कब जाओंगे ।।
लिखो..क्या वैक्सीन से जाओंगे।।
 तेरे साथ हर...घर सूना -सूना है ।

क्वारंटाइन हुए जाते हैं।
 टेस्ट डराते हैं ।
रिपोर्ट जब आती है ।
पोजिटिव कर जाती है।
कि कोरोना कब जाओंगे ।
कोरोना कब जाओंगे ।।
लिखो..क्या वैक्सीन से जाओंगे।।
 तेरे साथ हर...घर सूना -सूना है ।

क्वांरटाइन वालों ने ,
बेचारे सारों ने ,
हमें यह लिखा है ।
कि हमसे पूछा  है।

हमारे गांवों ने ,
अर्थव्यवस्था के बुरे हालों ने,
 बेरोजगारी के अम्बारों ने ,
 बंद बाजारों ने,

 खेत खलिहानों ने,
मिलावटी सामानों ने,
मुनाफेखोरों ने,
खरीदी वोटों ने,

किसानी धरनों ने,
सुलगते मुद्दों ने ,
रोटी की लाचारी ने ,
और पूछा है...
बेखौफ उमड़ती चुनावी रैलियों ने,

 कि तुम कब जाओंगे ।
कोरोना कब जाओंगे।
लिखो..क्या वैक्सीन से जाओंगे।।
 तेरे साथ हर... घर सूना -सूना है ।

क्वारंटाइन हुए जाते हैं।
 टेस्ट डराते हैं ।
रिपोर्ट जब आती है ।
पोजिटिव कर जाती है।
कि कोरोना कब जाओंगे ।
कोरोना कब जाओंगे ।।
लिखो..क्या वैक्सीन से जाओंगे।।
 तेरे साथ हर... घर सूना -सूना है ।

कभी एक ममता की,
 बंगाल की जनता की ,
जब टांग टूट जाती है ।
जब चुनाव की रैली आती है ।

मोदी की झूठी कहानी के ,
जेल जाने के ड्रामे के,
 वह ठुल्लू ममता का ,
वह उल्लू जनता का ।

वो नेताओं की बातों में ,
विकास के खातों में ,
वो शरणार्थी कैम्पों में,
वो रोहिंग्या विवादों में,

वो झूठे -समझौते से, 
वो मन के खोटो से ,

कृपा करें  अब.... देवी मां ।
यहीं हर रिपोर्ट में पूछे सब की मां।।

 कि तुम कब जाओंगे ।
कोरोना कब जाओंगे।
लिखो..क्या वैक्सीन से जाओंगे।।
 तेरे साथ हर... घर सूना -सूना है ।

क्वारंटाइन हुए जाते हैं।
 टेस्ट डराते हैं ।
रिपोर्ट जब आती है ।
पोजिटिव कर जाती है।
कि कोरोना कब जाओंगे ।
कोरोना कब जाओंगे ।।
लिखो..क्या वैक्सीन से जाओंगे।।
 तेरे साथ हर... घर सूना -सूना है ।

ऐ........ गुजरने वाली हवा बता ।
सब के मास्क काम करेंगे ...क्या ।

सबके गांव जा ।
सबके दोस्तों को ,
कोविड गाईड लाइन दे ।

सबके गांव में है जो वह गली ।
जहां रहती कचरे की ढेर लगी।
उसे साफ करके ...सबको सैनिटाइजर दे ।
सबको सैनिटाइजर दे ।

वही जिस -जिसके नहीं मास्क लगा।
सोशल डिस्टेंस का नहीं जिसे पता।

उन सब को बता के तू ,
उन्हें कोविड गाइडलाइन दे ।

ऐ गुजरने वाली हवा जरा .....
मेरे देश.... मेरी अर्थव्यवस्था ।
मेरी जनता को धीरज बंधा दे।
 कोरोना का डर  तू भगा दे ।

कि... कोरोना जाएगा।
 कोरोना जाएगा।
 सारी दुनिया से ,
मेरे भारत से ,
सारे दिमागों से ,
सारी अफवाहों से,
लगा के टीका कोविड वैक्सीन का,

कोरोना मिट जाएगा । 
एक दिन कोरोना मिट जाएगा ।
एक दिन कोरोना मिट जाएगा ।
एक दिन कोरोना भाग जाएगा।। 


                           प्रीति शर्मा "असीम"