भगवद्गीता के कर्म को समझने से पहले "मैं" को समझना अति आवश्यक है।
इस जीवन में आत्मा रुपी पछी एक बड़े से पिंजरे में कैद है। उसे ‘मैं’ ने कैद कर रखा है। ऐसी कोई हवा नहीं चल रही है कि पछी पिंजरा समेत उड़ान भर कर मुक्ति का आनन्द उठा ले। पिंजरे को तोड़ने के लिए ‘मैं’ की दीवार को काटना होगा। ‘मैं’ देखता है, ‘मैं’ ही सुनता है, ‘मैं’ ही महसूस करता है। यहाँ हालत यह है कि ‘मैं’ ही ‘मैं’ हूँ। दूसरा कोई नहीं है।
संसार के चक्र को एक व्यवस्थित विधान के साथ परमात्मा चला रहे हैं। परमात्मा का यह व्यवस्थित धारणीय विधान ही धर्म है। परमात्मा ही है, जो संसार के चक्र को सुव्यवस्थित ढंग से चलाकर उसे नित्य गतिमान रखते हुए संतुलित करते जाते हैं।
हमें यह समझ लेना चाहिए कि जो लोक-परलोक में शुद्ध और विकार रहित हो वही धर्म है। धर्म के उन्नत होने पर हिंसा खत्म होती है और अहिंसा मजबूत होती है। धर्म ही सभी जीवों का संरक्षण करता है। यह जीव ही है, जो धर्म को धारण करता है। इसी धर्म के कारण जीव का वैभव बढ़ता है। धर्म से ही मैत्रीभाव, क्षमा, दया, पवित्रता, विद्या, बुद्धि और बल के साथ सत्य की प्राप्ति होती है। जो धर्म को धारण करेगा, वह शरीर, मन और वचन से पवित्र रहेगा। जो धर्म के विपरीत हो, वह अधर्म कहा जाएगा। आत्मनिवेदन के भाव में जब इन्द्रियां वश में रहती है, तो हिंसा, झूठ, कपट, छल, चोरी और अपवित्रता तथा सभी भोगों के प्रति स्वच्छन्दता समाप्त हो जाती है। साधु पुरुषों और जीवों की रक्षा धर्म करता है। इसे हम ऐसे भी समझ सकते है कि धर्म रुपी शरीर जो भगवान का शरीर है, उनकी रक्षा करता है। अधर्म होने पर वही धर्म रुप से शरीर धारण कर परमात्मा दुष्टों का संहार करते है। भगवान अधर्म का शमन करके धर्म की स्थापना करते है। संसार का स्वरुप परिवर्तनशील है। धर्म और अधर्म दोनों ही परमात्मा की निगाह में रहते हैं। दोनों में से उन्हें अपने स्वभाव का स्वरुप धर्म ही प्रिय है।
धर्म की भूमिका केवल आध्यात्मिक उन्नयन के लिए नहीं है, बल्कि सामाजिक उन्नयन में भी धर्म का अत्यधिक महत्व है। अशान्ति पैदा करने वाले उपादान आज पूरे विश्व में सर्वत्र उपस्थित है। इसका कारण तृष्णा, प्रबल मिथ्या भोगेच्छा, अहंकार, द्वेष, ईर्ष्या, लोभ और राग है। लंबे समय से इन विसंगतियों को दूर करने में समाज जब चूकता है, तब अधर्म अपनी जड़े मजबूत करने लगता है। बद्धात्माओं की इस भौतिक जगत में भौतिक प्रकृति पर प्रभुत्व प्राप्त करने की इच्छा बहुत गहरी होती है। प्रत्येक मनुष्य सम्पत्ति एकत्रित करना चाहता है। वह अपनी अधिकतम सीमा तक सुख भोग लेना चाहता है। मानव की जगत में हर प्रकार से सुखी होने की इच्छा प्रबल होती है। ये इच्छाएं ही भौतिक बंधन का कारण हैं। सभी प्रकार की भौतिक इच्छाओं को निष्फल करने का एकमात्र साधन धर्म को धारण कर भगवान की भक्ति करना है। इसीलिए ज्ञानी और संत जन कहते है कि सदाचार का पालन करते हुए ईश्वर की भक्ति और असहायों की मदद कर उनकी सेवा में मनुष्य को सदा तल्लीन रहना चाहिए।
दरअसल, हमें जब तक यह अहसास नहीं हो जाता है कि ईश्वर ही सब कुछ कर रहे है। वह यन्त्री हैं और हम यन्त्र मात्र हैं। सभी को अपना मानकर प्रेम करना और किसी पर भी अपना अधिकार न मानना ही जीवन मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करता है। इन्हीं कारणों से हम धर्म संरक्षण को अपने जीवन से जोड़कर देखते है। इस जीवन में आत्मा रुपी पछी एक बड़े से पिंजरे में कैद है। उसे ‘मैं’ ने कैद कर रखा है। ऐसी कोई हवा नहीं चल रही है कि पछी पिंजरा समेत उड़ान भर कर मुक्ति का आनन्द उठा ले। पिंजरे को तोड़ने के लिए ‘मैं’ की दीवार को काटना होगा। ‘मैं’ देखता है, ‘मैं’ ही सुनता है, ‘मैं’ ही महसूस करता है। यहाँ हालत यह है कि ‘मैं’ ही ‘मैं’ हूं। दूसरा कोई नहीं है। यह मेरा मकान है, यह मेरा पुत्र है, यह धन मेरा है। यह सब पिंजरे की दीवार को मोटा कर कैद खाने को चमकाते रहते है।
लेकिन जब यह आभास होने लगे कि यह ‘मैं’ मेरे में है, वह नित्य शाश्वत और ज्ञान स्वरुप है तो समझ लेना चाहिए कि पछी पिंजरे समेत उड़ान भर रहा है। हम धर्मशालाओं में धार्मिक आचरण करते हुए नैतिकता का पालन करते हुए कुछ समय के लिए ठहरते है, फिर उसे छोड़कर चल देते है। धर्मशाला को लेकर यह भाव नहीं आता है कि यह धर्मशाला मेरा है। इस संसार में विचरण करने के लिए परमात्मा से अलग हुआ यह शरीर धर्मशाला है, जिसमें आत्मा रुपी पंछी कुछ समय के लिए ठहरता है, फिर नैतिकता के साथ ईमानदारी पूर्वक अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए धर्मशाला रुपी शरीर को छोड़कर चल देता है। यहाँ व्यर्थ का मोह, ममता, लगाव और रिश्तों का लोभ धर्मशाला को कैदखाने में तब्दील कर देता है। इसीलिए इसमें रह रहा आत्मा रुपी पछी इस कैद से आज़ाद नहीं होना चाहता है। कोलाहल सभी प्रकार के सृजन में बाधा उत्पन्न करता है। जीवन में जब भी दूसरा कोई पदार्पण करता है तो खुशी उत्पन्न होती है। जब कोई जाता है तो विक्षोभ।
स्वर-लालित्य, विद्या-कला और प्रेम की उत्कट अभिव्यक्ति इसी आने और जाने में समाहित रहता है। जीवन और कर्म, भक्ति और शक्ति, सर्जन और विसर्जन का सुंदर संयोग जीवन की संरक्षित दृष्टि को विशिष्ट बनाती है। इस धर्म संरक्षण में स्नेह, सौंदर्य, स्फूर्ति, समन्वय और स्पर्श की सुमधुर सृष्टि है।
प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"