साहित्य चक्र

12 May 2020

अंदर का शोर

ये कौन सा शोर है ,
जो मन को , हिलोरें दे रहा है।

भीड़ में रहने पर भी,
अंदर का शोर, शोर मजा रहा है।

न जाने कौन सी, आँधी आई है मन मे;
जो मुझे रातो को, सोने नही दे रहा है।

ये कौन सा शोर है ,
जो मुझे बेबस बना रहा है।

अध किनार लगी नाव को,
जो डूबा ले जा रहा है।

न जाने कौन सी, कश्मकश है मन मे;
जो जीते जी, मुझे बेजान बना रहा है।
 

ये कौन सा शोर है ,
जो अपनो को दूर ले जा रहा है।

प्यार से बंधे रिश्तों को,
जो जहर के घुट दे जा रहा है।

न जाने कौन सी विपदा आई है मन मे,
जो हर अपने को, बेगाना बना रहा है।
 
ये कौन सा शोर है ,
जो मुझे वीराने में सुनाई दे रहा है।

बंद कर लूँ ,कर्ण अपने,
तो वो अंदर गुनगुना रहा है।

न जाने कौन सी तलब लगी है ऐसी,
जो चीख दे कर, मेरे मन को सता रहा है।

कोई दूजा शोर नही ,
ये मेरा टूटा दिल रो रहा है।

जो हर घड़ी, हर पल ,
अपनो को ढूंढ रहा है।

हाथ छोड़ कर, जो अब बेगाने बन गए है,
मेरा मन रो- रो कर उन्हें बुला रहा है।


                                       ममता मालवीय 'अनामिका'


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