ये कौन सा शोर है ,
जो मन को , हिलोरें दे रहा है।
भीड़ में रहने पर भी,
अंदर का शोर, शोर मजा रहा है।
न जाने कौन सी, आँधी आई है मन मे;
जो मुझे रातो को, सोने नही दे रहा है।
ये कौन सा शोर है ,
जो मुझे बेबस बना रहा है।
अध किनार लगी नाव को,
जो डूबा ले जा रहा है।
न जाने कौन सी, कश्मकश है मन मे;
जो जीते जी, मुझे बेजान बना रहा है।
ये कौन सा शोर है ,
जो अपनो को दूर ले जा रहा है।
प्यार से बंधे रिश्तों को,
जो जहर के घुट दे जा रहा है।
न जाने कौन सी विपदा आई है मन मे,
जो हर अपने को, बेगाना बना रहा है।
ये कौन सा शोर है ,
जो मुझे वीराने में सुनाई दे रहा है।
बंद कर लूँ ,कर्ण अपने,
तो वो अंदर गुनगुना रहा है।
न जाने कौन सी तलब लगी है ऐसी,
जो चीख दे कर, मेरे मन को सता रहा है।
कोई दूजा शोर नही ,
ये मेरा टूटा दिल रो रहा है।
जो हर घड़ी, हर पल ,
अपनो को ढूंढ रहा है।
हाथ छोड़ कर, जो अब बेगाने बन गए है,
मेरा मन रो- रो कर उन्हें बुला रहा है।
ममता मालवीय 'अनामिका'
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