देश पर कोई भी संकट हो
स्थिति आपातकालिन भयावह
या कितनी भी विकट हो
हर कोई हो जाता हालात के आगे मजबूर किंतु
सबसे पहले दम तोड़ता है
देश का मजदूर
ये कोरोना को नहीं दिखता कि
वो मजदूर है
हालात का मारा
पलायन के लिए मजबूर है
उसे तो बस सांसें चुरानी है
जिंदगी चबानी है
रात फुटपाथ पर सोते
सुबह जबरस्ती पैरों को घसीटते
आगे बढ़े जा रहें हैं
जंग देश में छिडी़ है चारो तरफ
पर मजदूर घेर कर मारे जा रहे है
ना ठांव ना ठिकाना कोई
हालात के चलते
साथ चल रहे लोगों में अब ना रहा बेगाना कोई
कमर पर बच्चे जो अन्जान है मां बाप के दुख से
आंखें डबडबायी हैं मन बेकल है भूख से
सर पर बोझ वो भी ऐसा जिसमें
खाने का कोई सामान नहीं
तय तो हो चुका है जाना है गांव
पर सफर इतना आसान नहीं
चल पड़े हैं बस पांव के छालों से बतियाते
सायकिल चलाते खुद ही पंचर बनाते
जिन्होने ईंट माटी ढ़ो ढो़ कर
घर खडा़ किया रईसों का
बिना घर के वो बेघर हुए है वो
कोई पूछता भी नहीं हाल इन मासूमों का
जिन्हें कहता है समाज हिजडा़
उन्ही ने सर्वप्रथम परिचय दिया है
इंसानियत का
समाज की संकीर्ण सोच
एक रूप है हैवानियत काम
संकट की इस घड़ी में मैं प्रणाम
और आभार व्यक्त करती हूं
उन डॉ.,नर्स और सभी सफाई कर्मचारियों का
उन सभी जन सेवा संस्थाओं और
उन सभी वर्दी धारियों का
जिन्होंने रात दिन एक कर दिया है
देश के सेवा भाव में
जागते खडे़ है नींद के अभाव में
परिवार इनका भी है शहर या गांव में।
आइए संकल्प लेते हैं किसी एक
मजदूर के चेहरे पर खुशी देने की।
कुछ दिनों कि भूख मिटाकर
उन्हें नयी जिंदगी देने की।
कंचन तिवारी "कशिश"
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