डोली सज रही हो जैसे,
मैयत मेरी सज रही थी...|
गहेरी नींद मे मे सौ रही थी,
जगाते रहे थे स्वजन जिन्हे मे
हर सुबह जगाया करती थी...|
न जागे तो अकसर डांटा करती थी,
पर आज सभी की आँखे बेहिसाब रो रही थी.. |
वही लाल चुनर, माथे पे बिंदी सज रही थी,
जैसे सजधज कर दुल्हन बनकर मे
घर आँगन कदम रख रही थी..
कभी न लाते थे वो गजरा
मोगरे के फूलो वाला,
वो अकसर भूल जाते थे,
आज महेबुब के हाथो,
मे फूलो से सज रही थी,
कारोबार मे खोये रहते वो
न कभी नज़र भर के देखते थे,
आज उनकी नज़र मेरी सूरत से हट नहीं रही थी..
जिनको कभी कांधो पे,
बिठाके घुमा करती थी,
आज उन्ही के कांधे पे चढ़ कर मे
सफर पे निकल पड़ी थी...|
कमाल तो तब हुआ की
हर एक अपना अपनापन दिखा रहा था,
जब सांसे मेरी धड़कन छोड चुकी थी.. |
गर पता होता की मौत आने पर,
हर एक अपना दिल ए अजीज़ होने लगता है,
मे पगली उन अपनों के लिए
आज तक जिये जा रही थी.. |
हर गली, मुहल्लाह सुमसान हो गया था,
जिस गली की मे रौशनी हुआ करती थी..
हर रास्ते की नज़र मुझपे टिकी हुई थी..
रोज निकलती थी जीन गलियों से..
वो गलियों की धूल मुझसे
लिपट ने को जैसे बेचैन हो रही थी..
जला दिया हमको
लकड़ीओ के बिच सुलाके,
जिनके लिये रोज मे चूल्हा जलाया करती थी.. |
उडाता रहा धुँआ मेरी लाश के दहन का,
मे राख का ढेर बनके बिखर रही थी.. |
हर एक शख्श मुझे
वही छोड़ के जा रहे थे,
मेरी रूह अंतिम बार सबको
पीछे मूड मूड के देख रही थी.. |
अल्पा मेहता एक एहसास
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