साहित्य चक्र

02 May 2020

काश उसकी तरह

'पत्ता और मैं'



देखकर शाख से गिरे पत्ते को
मुझे लड़की होने का एहसास हुआ
कितनी खामोशियाँ सुना गया
वो पत्ता जब बोलने पर आ गया।

वो तो हमेशा के लिए टूट गया
पर मुझे तो टूटकर फिर जुड़ना  है
वो भी नही जानता मैं भी नही जानती
हमे किस मंजिल की तलाश में जाना है।

'उफ' तो वह भी नही करता 
'आहें' मैं भी नही भरती
क्या है उस पार जो देख पाई
विवशता ही जिंदगी से जुड़ी हुई पाई।

काश उसकी तरह मैं भी एक बार टूटती
जिंदगी के मंझधार से एक बार ही जूझती
भूल दुनियाँ के फरेबी जालों को
खुली हवा में साँस तो ले पाती।

कितनी जल्दी उड़ निकल वो 
पर मुझे तो उड़ते जाना है
उस सोने के पिंजड़े तक 
कैद करने के लिए
कर रहा जो प्रतीक्षा मेरी।

                                                   राधा शैलेन्द्र


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