साहित्य चक्र

24 May 2020

मैं तो सपने में थी





यूँ ही बैठे-बैठे आज,
लग गई आँख धीरे से मेरी थी।
तभी एक चीख सुनाई दी अचानक,
मैं सहम गई, ये आवाज कैसी थी।।

बिलख रही थी एक औरत,
अपना दुख बयां कर रही थी।
अपनी बातों को वह तब,
रो - रो किसी को सुना रही थी।।

दर्द बहुत था उसकी आवाज में,
हर शब्द में उसके एक तड़प थी।
समुंदर झर रहा था आँखों से उसकी,
साँसों में जख्मों की सड़न थी।।

आह, इतनी तड़प, मैं झिझक गई,
कौन थी वो मैं सोच में थी।
कैसे जी रही थी वो अब तक,
आँसू की झड़ी मेरी आँख में भी थी।।

तभी कुछ हलचल हुई,
सामने माँ चाय लिए खड़ी थी।
मुझे कुछ - कुछ समझ आया तब,
अरे, अब तक मैं तो सपने में थी।।

                     “कला भारद्वाज”


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