नसीब से अपने, मजबूर हूँ,
मेहनत करता हूँ, मगरूर हूँ।
दिन रात पसीना, बहाता हूँ,
नज़र में लोगो की, बेशऊर हूँ।
धरती पर भी मैं, सो लेता हूँ,
थकान से शरीर की, चूर हूँ।
स्वाभिमान से सदा, जीता हूँ,
मक्कारी बेईमानी से, दूर हूँ।
यूँ तो अभावो का, अभागा हूँ,
मगर टूटी झोपडी का, नूर हूँ।
गर्मी, सर्दी, बरसात सहता हूँ,
इसलिए मैं थोड़ा सा, बेनूर हूँ।
असंख्य तनावो से, मैं दबा हूँ,
सरकारी फाइलों में, मशहूर हूँ।
गरीबी, लाचारी से, जूझ रहा हूँ,
क्यूँकि मैं, निराश मजदूर हूँ।
विनोद निराश
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