चक्के की गति,
मिट्टी पर थिरकते हाथो से
जिसने खोज निकाला था
बरतन बनाने की कला
दे दिया गया उसे नाम कुम्हार का।
जिसने लकङियों पर चलाकर
छेनी हथौड़ी
दिया बना खाट किवाङ
राजमहल के नक्काशीदार द्वार
सुंदर अलंकृत गवाछ
मिला नाम बढ़ई का ।
जिनके श्रमबिंदु गिरकर
गढ़ रहे थे अट्टालिकाओं के
छत,फर्श,दीवार
चुमती गगन मीनार
विशाल दुर्ग ,गुम्बज
कहलाए शिल्पीकार।
कर झकाझक वस्त्र मलिन
व्यक्तित्व पर फिराता था जो जादू
पिसता रहा समाज में धोबी बनकर
मृत जानवरों की खालो से
जिसने दिया पांवों को वस्त्र नरम
मिला तमगा चमार का
उच्छिष्टो को कर साफ़
बनाया घर समाज पवित्र
अपने श्रमसीकर से धोकर
घृणा को जीत
रोककर उबकाई
उठा हाथो से विष्टा
दिया समाज को तार
बना कर डोम
समाज कहता रहा नीच
करता रहा घृणा
सभ्य होने से पूर्व
सभ्यता के देह पर
ठोक दी गई
अनगिनत कीलें
ढो रहे हम आज भी
सांस्कृतिक उत्थान के नाम पर
अपने अपने गैरत की लाशे
अपने घायल कंधों पर लेकर
डॉ प्रभा कुमारी
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