साहित्य चक्र

06 August 2021

मुसाफिर

तू आया है मुसाफिर बनके 
तू बस चलता जाना..

पथ पर अपना निशान छोड़ते जाना 
गगन चुभती बादलों को देखता जाना 
दूसरों के निशानों को भी पढ़ते जाना 
तू आया है मुसाफिर बनके 
तू बस चलता जाना..

गंगा की तरह बहता जाना 
समुंदर बैठा है तेरी आस में 
तू बस बहता जाना 
काँटे भी मिलेंगे राह में..

तू बस बढ़ता जाना 
लहू भी निकलने पाँव से 
पर याद रखना..

तू आया है मुसाफिर बनके 
तू बस चलता जाना..

        
                                        मणिकान्त 


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