जमीं चाहती हूं।
अपने हिस्से का मकान
मांगती हूं।
फुर्सत के कुछ पल
तलाशती हूं।
सपनों का महल
ढूंढती हूं।
मैं भी
चाहती हूं
बच्चों सा खिलखिलाना।
कभी छुप जाना
कभी मिल जाना।
जब मन हो
काम करना।
नहीं मन हो तो
भाग जाना।
बिन बात कभी
रूठ जाना
मनुहार से फिर
मान जाना।
मैं भी अपने हिस्से की
खुशी चाहती हूं।
अपने गम से
होना बेपरवाह
चाहती हूं।
अर्चना त्यागी
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