साहित्य चक्र

21 August 2021

कविताः पानी की कहानी


रात को एक सपना आया..
ईश्वर ने मुझे पानी बनाया,
आगे सुनो मेरी कहानी..
क्या कर पाई मैं बन कर पानी,
ना मेरा कोई रूप रह गया, 
ना  कोई रंग..
अलग सी बन गयी मेरी कहानी,
अलग से बन गया ढंग..
जिसमें मिल गई तैसी हो गई..
कुछ इस तरीके से उस में खो गई,
पत्थर को चीर कर राह बनाई..
कहीं नदी तो कहीं सागर कहलाई,
गंगा में मिलकर गंगाजल बन गई.. 
बादलों से मिलकर रिमझिम बरस गई..
ऊंचाई में एकत्र करके बिजली बना दिया,
झोपड़ी से लेकर महल तक सबको जगमगा दिया..
कभी अंबर तो कभी धरती पर रुकी मैं,
कभी लहर बन कर उठी तो कभी बूंद बनकर झुकी मैं..
बहती गयी तो सब कुछ महका दिया..
ठहर गयी तो आस पास सड़ा दिया..
ना मेरी जात  ना कोई धर्म..
ना मुझसा सशक्त कोई ना कोई नरम..
किसी की उम्मीदों पर फिर गयी, तो.. 
किसी की आंख में भर गयी,
छोटा बड़ा सब एक समान..
किया नहीं है मैंने खुद पर मान,
पानी की कीमत मैंने अब जानी.. 
बंद आंखों से जब देखी कहानी,
सबको समझनी होगी ये बात सयानी..
नहीं करनी अब कोई मनमानी,
पानी हमारा आज, यही हमारा कल..
संभाल कर रखेंगे तो होगा हमारा जीवन सफल,


                              अपराजिता मेरा अंदाज


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