साहित्य चक्र

08 August 2021

बलात्कार




ज्येठ महीने की थी बात, 
भीषण गर्मी की थी रात।

स्कूल हमारे बंद हुए थे,
थक के हम भी चूर हुए थे।

मानव रूपी भेड़िया आया,
 उस वहसी को तरस ना आया।

मैं छोटी बच्ची लाचारी थी,
 घर की प्यारी दुलारी थी।

उस अंधेरी रात मैं चीखी थी,
मांँ बापू कहकर बिलखी थी।

उस भेड़ियों को तरस ना आया,
मैं बच्ची पर तरस ना आया।

मैं एक बच्ची दलित लाचारी,
लोगों के लिए अछूत थी।

मैं उस अंधेरी रात रोई 
बिलखी चिखी थी।

उस मानव रूपी भेड़िए ने,
उस रात कहंर बरपाया था।

मांँ मांँ कहते कहते,
 उस रात मुझे तड़पाया था।

उस काली अंधेरी रात में,
मेरे कोमल से जिस्म में।
दानव जैसे दांत गडाया था।

उसे ज्येठ की रात मुझे,
मानवता पे सरम आया था।

उस अंधेरी रात को चिखते हुए,
हाय माँ हाय पा कहके,
 मैने कैसे रात बिताया था।

मै भी तुम्हारी बहन बेटी हूँ,
कुछ तो मुझपे तरस करो।

मैं एक दलित बेटी हूँ,
कुछ तो खुद पे शर्म करो।

दलित होने पे तुम अछूत मानते,
बलात्कार करते कुछ नही मानते।

ये कैसे इंसान हो तुम,
इंसान हो या हैवान हो तुम।



                                        राजेश "बनारसीबाबू"


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