संस्कृति का इतिहास अत्यन्त प् राचीन है एवं उसका क्षेत्र सार् वभौमिक और सार्वकालिक है। इस धर ती पर मानव के जन्म के साथ ही उ सका उदय हुआ और मानव जीवन के वि कास के अनुरूप ही उसकी धारा नि रन्तर आगे बढती गयी। मानव जीवन के इतिहास के निर्माणक जितने भी साधन हैं,उनमें संस्कृति का स् थान मुख्य है। विष्व के प्रत्ये क राष्ट्र की अपनी संस्कृति है। युगों-युगों से प्रत्येक राष् ट्र अपनी सांस्कृतिक थाती को सहे ज कर रखता आया है जो कि उसकी गरि मा का द्योतक रहा है। किसी भी रा ष्ट्र की उन्नति का सीधा सम्बन् ध उसकी संस्कृति से होता है। सं स्कृति ही वह तत्व है जो एक रा ष्ट्र की परम्पराओं को अन्य से अलग करते हुये उसे एक विषिष्ट प हचान देती है। भारत प्राचीन काल से ही सांस्कृतिक गतिविधियों औ र परम्पराओं में विष्व का अग् रणी राष्ट्र रहा है। जब समस्त वि ष्व की सभी सभ्यतायें प्रगति के शैषवकाल में विचरण कर रही थी, तब भारतीय ऋषि तत्वज्ञान की गहन मीमांसा, चिंतन एवं मनन में ली न थे।
यथा-
ज्ञानं तृतीयं मनुजस्य नेत्रं स मस्ततत्वार्थ विलोकिदक्षम् ।ते जोइनपेक्षं विगन्तान्तरायं प् रवृतित्त मत्सर्व जगत्त्रयोपि । ।
प्राचीन भारतीय चिंतकों एवं ऋषि यों ने देष में सामाजिक,सांस्कृ तिक,षैक्षणिक धार्मिक,आघ्यात्मि क आदि क्षेत्रों में ऐसी गतिवि धियों की नींव रखी, जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तान्तरित होकर अक्षुण्ण परम्पराओं के का लक्रम में सदैव जीवंत रही।
भारतीय संस्कृति में एक संतुलित जीवन की यात्रा के दो अंग है-( 1) सभ्यता और (2) संस्कृति। सं स्कृति एवं सभ्यता दो भिन्न-भि न्न स्थितियों की द्योतक हैं। ए क को आत्मा तथा दूसरे को शरीर क हा जा सकता है। संस्कृति आन्ति रिक नैर्मल्य है तो सभ्यता वाह् य प्रसाधन। एक में शांति तो दू सरे में चमक-धमक, एक में प्रबु द्धता, तो दूसरी में उपयोगिता। एक में निःश्रेयस है, तो दूसरी में अभ्युदय। इस तरह से सभ्यता सभा (समाज) के योग्य बनने का आदे ष देती है। जैसे- हमारा उठना, बै ठना, व्यवहार करना, वेषभूषा, खा न-पान, संवाद-विवाद, कला, कु षलता, नृत्यगीत इत्यादि। जिस बा त को समाज पसन्द करता है वह सभ् यता है।
संस्कृति का अर्थ हे संस्करण, प रिमार्जन, शोधन,परिष्करण अर्थात ऐसी क्रिया जो व्यक्ति में नि र्मलता का संचार करे। हमारे मा नवीय साधन के पॉच सोपान हैं- शरी र, आत्मा, मन, बुद्धि और अध्या त्म और इन्हीं की सिद्धि का नाम ही संस्कृति है। वैदिक काल से लेकर बारहवीं शताब्दी तक जिन तत्वों से भारतीय संस्कृति का निर्माण हुआ, वही भारतीय संस्कृति की नीं व हैं। अनेक व्यक्ति मिलकर समाज तथा जाति का निर्माण करते हैं। अतः निर्मल एवं संस्कृत व्यक् तियो से समाज तथा राष्ट्र भी सं स्कृत होते है और उनके निर्मलता विधायक तत्व संस्कृति के मूल सू त्र बन जाते हेैं। विषुद्धि, नि र्मलता, परिष्कृत एक मानव से चल कर जैसे समाज तथा जाति की सम् पत्ति बनती है, उसी प्रकार विष् वभर की थाती भी बन सकती है। सं स्कृत के इस व्यापक रूप को वेद ‘विष्ववारा संस्कृति‘ का नाम दे ता है। भारतीय संस्कृति का मूल वेद है जो हमें संस्कृति एवं सभ्य ता के आधार पर एक संतुलित जीवन पद्धति को सुव्यवस्थित रूप से जी ने एवं चलाने का मार्ग प्रषस्त करता है।
संस्कृति यम और नियम के रूप में वर्ततें जीवन शैली को निर्मित करती है । यम ही शील की भी स्था पना करते हैं । यम वह सार्वभौमि क निर्गुण मूल्य है जो हमें नि रन्तर उदारता की ओर प्रेषित करते हैं किन्तु जब हम उनको व्यवहार में लाने के लिए नियम बनाते हैं तो उन निर्गुण मूल्यो को सगुण रूप में ढालते हैं ।
इस ढालने की प्रक्रिया में ही शी ल का प्रादुर्भाव होता है । सत् य, अहिंसा, अस्रेय, अपरिग्रह, स्वा ध्याय आदि यदि यम हैं तो व्रत, सहिष्णुता, त्याग और संतोष, स् वावलंबन आदि नियम हैं । इन नि यमों में कैसे यम का पालन हो यह शील में व्यक्त होता है । जिस संस्कृति में यम के प्रति आदर, नियमों के प्रति विश्वास और शी लयुक्त आचरण की क्षमता होती है वही संस्कृति जीवन्त होती है और हमें एवं हमारे आचरण को संतुलि त बनाती चलती संस्कृति के माध् यम से ही मानव-मानव के संबंधों को अभिव्यक्ति मिलती है ।
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