साहित्य चक्र

27 January 2020

घूम रही उपवन-उपवन

वह घूम रही उपवन-उपवन

पुष्पों सी नजाकत अधरों पर

नवनीत-सा कोमल उर थामे।

एक पाती प्रेम भरी लेकर

वह घूम रही उपवन-उपवन।

सुर्ख कपोलों पर स्याह लटें

धानी आंचल का कर स्पर्श।



छूने को नभ का केंद्र-पटल

वह घूम रही उपवन-उपवन।

मधुर रागिनी करतल ध्वनि पर

छेड़े अनकही अविरल सरगम।

सुधि बिसार, गर्दन उचकाए

वह घूम रही उपवन-उपवन।

भोर को निकली, सांझ ढले तक

प्रियतम की अपलक बाट जोहती।

अतृप्त, अप्रसन्न और विक्षिप्त-सी

वह घूम रही उपवन-उपवन।

ना साज-सिंगार, ना इच्छा बाकी

रोम-रोम बसे मूरत यार की ।

ले अभिलाषा उसके आवन की

वह घूम रही उपवन-उपवन।

विनोद वर्मा 'दुर्गेश’


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