कुछ
लिखने से
पहले सोंच लेना
पढ़ने वाले तुम्हें अपने
दायरे में रख कर पढ़ेंगे,
वो खुद से ही अर्थ निकालेंगे
क्योंकि छपने के बाद रचना, तुम्हारे
होठों से निकले हुए शब्दों की तरह हैं
जिसे तुम वापस नहीं ले सकते और न
उससे तुम 'अपने' होने से इनकार कर सकते हो ।
तो,प्रश्न यह है कि क्या" हम " लिखना छोड़ दें ?
नहीं, लिखना छोड़ना तो आत्महत्या करने जैसा है ।
और मुक दर्शक बनकर जीना भी महापाप है एक
बुद्धिजीवी,सम्वेदनशील और प्रगतिशील
लेखक के लिए !!
फ़िर क्या करें हम ?
बस सोंच ले की क्या लिखना है?
किस के लिए लिखना है ?
कब लिखना है?
और हाँ
क्यों?
-अजय प्रसाद
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