मृत्यु भोज
पिता का साथ उसके लिए
वट वृक्ष पर चढ़ी लता सा था
मैली कमीज से छाकती
उसकी जर जर काया
टिकी थी
पीड़ा वेदना कष्टों के पर्याय पिता की शाखा पर
न अहसास था न पहचान थी
गरीबी की।
पर एक दिन टूट कर बिखर गया वह पुराने आईने की तरह
पिता की मौत से।
घर में मचे कोहराम के बीच गुमसुम सा
सून रहा था
झूठी सांत्वना।
घर के चूल्हे पर चढ़ी बटलोई
को उडेल
अंगारे भर चल पड़ा
पिता को मुखाग्नि देने।
पंचों की बैठकों का दोर चला
निर्णय भोज का हुआ।
किसी ने नहीं देखा उसके घर
से टूटी चौखट,उखड़ी खिड़की,
पूस की छत से
अहसाय सी झाँकती
बेबस बेकार लाचार
विपन्नता को
बस सब उलझे थे मृत्यु भोज
पर पकाये जाने वाले
पकवानों की सूची में
आखिर सौप दी उसे
उसकी विपन्नता का मखोल उडा़ती।
उसकी तंगहाली पर
ठहाके लगाती।
लिस्ट।
वह ठंडी हो रही आंच पर रात के बासी टुकड़े
सेकता सोच रहा था मौन चुपचाप
आखिर .....
द्वादशा पर लगी थी कतारे
घर,परिवार,समाज की
ले रहे थे सब चटकारे
अट्हास करते....।
अनजान से..डूबे थे स्वाद के सागर में
जो पके थे उसकी माँ की हसली,
बीवी के मंगल सूत्र,
और जमीन के टुकड़े को जमींदार के यहां गिरवी रखने पर हमेशा के लिए।
और ..
वह दूर बैठा टपका रहा था आँसू
जो पिता की मौत से कहीं ज्यादा
अपनी आने वाली कंगाली के थे ।
असहाय सा
सफेद पाग बाँधे अपने उजड़े कल की।
हेमराज सिंह
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