साहित्य चक्र

27 January 2020

दिल में बस गए आरज़ू




रुख पे रख के हाथ चेहरा छुपाते क्यूँ हो ,
सोये हुए दिल-ए-जज़्बात जगाते क्यूँ हो।

जानता हूँ की आप हैं बेहद हंसीं मगर ,
जुल्फ अपनी हवा में यूं लहराते क्यूँ हो।

दबा के दुपट्टा मुँह मे अपने दानिस्ता ,
तब्बसुम अपना हमसे छुपाते क्यूँ हो।

वायदा गर निभा नहीं सकते जब तो,.
झूठे कस्मे-वादे आप कराते क्यूँ हो।

दिल में नहीं है जब कोई बात आपके ,
कभी हंसाते तो कभी रुलाते क्यूँ हो।

गर नहीं ताल्लुक कोई दरम्यां हमारे ,
छुप-छुप के दरीचे से बुलाते क्यूँ हो।

जानते हैं दिल में बस गए आरज़ू बनके,
नहीं तो चुपके-चुपके हाथ हिलाते क्यूँ हो।

ख्वाहिश है जब आपको महलों में रहने की ,
निराश मेरे दिले-वीरां में घर बनाते क्यूँ हो।

                                         विनोद निराश


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