साहित्य चक्र

26 January 2020

21वीं सदी का डिजिटल भारतीय गणतन्त्र





एक लम्बे अर्से से राष्ट्रीय पर्व/त्योहारों पर लिखने का संयोग मिलता रहा है। उसी क्रम में स्वाधीनता दिवस और गणतन्त्र दिवस के पावन अवसर पर न चाहते हुए इस बार भी हम गणतन्त्र दिवस यानि रिपब्लिक डे पर पढ़ने वालों के लिए कुछ न कुछ अवश्य ही परोसने का प्रयास कर रहे हैं। 1950 से अब तक हम 70 साल तक खांटी लोकतन्त्र के नागरिक बनकर व्यवस्था की पीड़ा, सुख-दुःख, उतार-चढ़ाव और आशा-निराशा के बीच जीवन जीते आ रहे हैं। लेखन के शुरूआती दौर में हम अज्ञानतावश लोगों को नसीहत दिया करते थे। परन्तु अब धीरे-धीरे यह समझ में आ रहा है कि किसी को भी नसीहत या मुफ्त की सलाह की दरकार नहीं है। हर कोई लोकतांत्रिक देश में अवाम को दिये जाने वाली सहूलियत के लिए शीर्ष पंचायत द्वारा बनाई गई व्यवस्था के दोष-गुण का दंश झेल रहा है। यह कहा जाये कि यदि देश वासी के चेहरे पर मुस्कान है तो इसका अभिप्राय यह नहीं कि उसे किसी भी प्रकार की पीड़ा नहीं है। लगभग डेढ़ सौ करोड़ की आबादी वाले देश के ग्रास रूट से लेकर टॉप पर विराजमान व्यक्ति अवश्य ही किसी न किसी प्रकार से झंझावात का सामना कर रहा है।

इधर कुछेक वर्षों से देश का आम नागरिक लगभग संज्ञाशून्य सा होने लगा है। जैसे जब नोटबन्दी हुई थी या की गई थी तब इसको लेकर परेशानहाल कुछ समझ ही नहीं पा रहे थे कि आखिर होगा क्या? ठीक उसी तरह सारे टैक्सेस/कर एक करके जी.एस.टी. के स्वरूप में कर दिये जाने से आम लोगों को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा। लोग समझ ही नहीं पा रहे थे कि आखिर यह है क्या? सत्ता विरोधियों ने इसका नाम ही गब्बर सिंह टैक्स कर दिया था। बीच-बीच में आतंकवादी हमले, सर्जिकल स्ट्राइक, तीन तलाक का खात्मा, धारा-370 का समापन तदुपरान्त एन.आर.सी. और सी.ए.ए. लागू किया जाना इन सबकी वजह से पूरे देश वासियों में सोच का विभाजन होने लगा और लम्बा-चौड़ा आन्दोलन भी हुआ। सरकारी सम्पत्तियाँ तोड़-फोड़ कर आग के हवाले कर दी गईं।


आम आदमी जिसे दो जून की रोटी, तन ढकने के लिए कपड़ा और रैन बसेरे की जरूरत होती है वह प्याज, और लहसुन सहित सब्जी के राजा आलू की महंगाई झेलने को मजबूर हो गया। इस बार की सर्दियों का मौसम झेल रहे आम जन की रसोई में हरी मटर से बनने वाला निमोना भी नहीं देखने को मिला। वरना देहात से लेकर शहर तक के लोग निमोना-भात खाकर गगनभेदी डकार लगाते थे। यह आलेख लिखने के दौरान समाचारों से पता चला कि आलू 25 रूपए, प्याज 60रूपए, लहसुन 250 रूपये और हरी मटर 50 रूपए किलो की दर से बिक रहा है, जो पहली की अपेक्षा काफी कम है और इनकी महंगाई में निरन्तर कमी आ रही है।
ठण्ड से ठिठुर रहे गरीबों/पात्रों को सरकारी इमदाद के तौर पर मिलने वाला कम्बल इस बार शायद ही वितरित किया गया हो। इस कथित पुनीत कार्य में एन.जी.ओ. संचालकों ने भी रूचि न दिखाकर इससे किनारा कसा। अलबत्ता जगह-जगह निर्मित अस्थाई गौशालाओं में हाकिम-हुक्मरान जाकर सरकार के निर्देशानुसार पशुओं के रख-रखाव का विशेष ध्यान देते देखे गये। शहरी क्षेत्रों में अस्थाई रैन बसेरे दिखाने भर के लिए ही बनवाये गये थे, अलाव कहाँ जला, कहाँ बुझा ठीक उसी तरह रहा जैसे- जंगल में मोर नाचा किसने देखा। कौन कहे कि इसके लिए शासन स्तर से मिलने वाला वित्तीय फण्ड का लाखों/करोड़ों कहाँ गया? भ्रष्टाचार का नाम लेकर हम इसकी उम्र नहीं बढ़ाना चाहते।

सुधी पाठकों! हम अपनी तरफ से कुछ भी नहीं लिखेंगे, आप लोग खुद ही सोच विचार कर अपनी टिप्पणियाँ दे सकते हैं। हम क्यों कहें कि भ्रष्टाचार वटवृ़क्ष सदृश्य है, मिलावट जन्मसिद्ध अधिकार और महंगाई पारम्परिक है। इसका अन्तर आप स्वयं लगायें क्योंकि हाथ कंगन को आरसी क्या.....पढ़े लिखे को फारसी क्या.....? हमारा देश वैश्विक बाजार में एक अहम भूमिका निभा रहा है। हम डिजिटलाइज्ड हो रहे हैं। नित्य नये-नये प्रयोग करके सरकार/सरकारें हमारा जीवन सांसत में डाल रहीं हैं फिर भी हम हमारे देश के गणतन्त्र दिवस के शुभ अवसर को कत्तई भुला नहीं सकते। गणतन्त्र का जन्मोत्सव हम अवश्य ही मनायेंगे। 


लीजिए फिर आ गया गणतन्त्र दिवस। अब यह मत पूछिएगा कि यह क्यों याद किया जाता है? भाइयों/बहनों/सुधीजनों इसी दिन 1950 को देश में अपना संविधान लागू हुआ था और तब से इस स्वतंत्र राष्ट्र में लोकतन्त्रीय व्यवस्था अभी तक कायम है। हमारे देश का लोकतन्त्र 70 वर्ष पुराना हो गया। जी हाँ 71वाँ हैप्पी बर्थडे ही कहना उचित हो सकता है। देश के लोकतन्त्र की प्रजा यानि आम जनता के विकास के लिए कई पंचवर्षीय योजनाएँ चलीं और यदि विकास हुआ तो भ्रष्टाचार और महंगाई का। ये दोनों फल-फूल रहे हैं और नित्य-निरंतर विकास कर रहे हैं। एक तरह से विशाल बटवृक्ष बन गए हैं।

छोड़िए भ्रष्टाचार और महंगाई का रोना तो सभी रोते हैं तब फिर हमें क्या पड़ी है कि उसी का राग हम भी अलापें। सरकारी दफ्तरों से लेकर आम परचून की दुकान पर जाने से पहले आपको और हमें अपनी जेबों का वजन देखना ही पड़ेगा। यदि वजन नही तो काम नहीं और खरीददारी भी नहीं। हम नेता तो हैं नहीं कि राजनीति जैसे व्यवसाय को अपनाकर रातों-रात स्लमडाग मिलियनेयर हो जाएँ। अब तो नेता बनने के मानदण्ड ही परिवर्तित हो गए हैं। मसलन कई दर्जन हत्या, अपहरण, बलात्कार, खून-खराबे जैसे अपराधों में संलिप्तता सम्बन्धित थानों में पंजीकृत होनी चाहिए। अदालतों में मुकदमें विचाराधीन होना भी राजनीति में प्रवेश करने का प्रमुख मानदण्ड है। लखपति/करोड़पति ही पॉलिटिक्स जैसा बिजनेस कर सकते हैं।

हम देखते हैं कि जनता की कमाई पर ये नेतागण ऐश करते हैं। वातानुकूलित गाड़ियों से चलते हैं, आई.ए.एस., आई.पी.एस. जैसे अफसर इनकी अगुवानी में व्यस्त रहते हैं। राजनीति के परिवर्तित परिदृश्य पर दृष्टिपात करने से मन खिन्न हो जाता है। हम तो ठण्ड में कम्बल के लिए कतार में लगते हैं, अग्निकाण्ड, बाढ़ और अन्य प्राकृतिक आपदा की स्थिति में सरकारी इमदाद के लिए मारामारी करते हैं। सरकारी मुलाजिम और सत्ता पक्षीय नेताओं की साठ-गाँठ से हम जैसे गरीब पात्रों के लिए प्रदत्त सरकारी इमदाद घूम-फिर कर इन्हीं लोगों के बीच रह जाती है और बूढ़ी माँ कम्बल लेने की कतार में ही खड़ी-खड़ी ठण्डी लगने से प्राण त्याग देती है।

आप शायद यह तो जानते ही होंगे कि डेमोक्रेसी को पहले प्रजातन्त्र कहा जाता था। भला हो ज्ञानी, अक्लमन्द पॉलीटीशियन्स का उन्होंने इसे अवाम को खुश करने के लिए लोकतन्त्र कह दिया। विषय लम्बा क्यों किया जाए? इस समय भ्रष्टाचार के बाद यदि किसी ने विकास किया है तो वह है महंगाई। ये दोनों हमारे गणतन्त्र में लाइलाज बीमारी हैं। इनका विकास कैसे रोका जाए हमारी समझ से बाहर है। तो क्या आप गणतन्त्र के 71वें जन्मोत्सव पर संकल्प लेकर भ्रष्टाचार और महंगाई पर नियंत्रण लगाने का प्रयास करेंगे। इसके लिए आप को नेता बनना पड़ेगा और राजनीति के माध्यम से जनसेवा करनी होगी जिसके लिए आपको डॉन, माफिया और हत्यारा बाहुबली बनना पड़ेगा। पुलिस थानों में आप की हिस्ट्रीशीट, खुले अदालतों में आपके विरूद्ध मुकदमा विचाराधीन होने चाहिए। यह मानदण्ड (मानक) आपको मंजूर है। यदि है तब तो फिर आप सत्ता का सुख भोगने के लिए फिट हैं।

बीते वर्षों में हम और हमारे जैसे लोगों की हालत सरकार की नई-नई नीतियों के चलते और भी खराब होने लगी है। मसलन देश में विमुद्रीकरण, जी.एस.टी. और आधार लिंक अनिवार्यता ने आम आदमी को झकझोर कर रख दिया है। आम आदमी जो मतदाता भी है समस्त कष्टों के बावजूद भी येन-केन-प्रकारेण अपना जीवन जी रहा है और इसे अपनी नियति मानने लगा है। मतदाता मतदान के अवसर पर आसन्न प्रसव पीड़ा से कराहती माँ की तरह अपना दुःख भूलकर मतदान करते हैं और बड़े-बड़े दावे करने वालों का चयन होने के उपरान्त वह प्रसव पीड़ा को भूल जाते हैं। आम आदमी अपना जनप्रतिनिधि चुनने में बार-बार और हर बार यही गलती करता है।

70 वर्षीय भारतीय गणतन्त्र में साक्षरता का जो भी प्रतिशत हो परन्तु शिक्षित और ज्ञानियों (दूरगामी परिणाम सोचने वाले) की संख्या में कोई विशेष बढ़ोत्तरी हुई हो ऐसा देखने को नहीं मिल रहा है। देश की जनसंख्या नित्य-निरंतर बढ़ रही है। देश विकास कर रहा है। कंकरीटों के जंगल बढ़ रहे हैं, हरे-भरे बाग-बगीचों, वनों, जंगलों का सफाया हो रहा है। देश के अवाम के लिए संचालित सरकारी योजनाओं में लूट मची है। भ्रष्टाचार चरम पर है। जातिवाद, सम्प्रदायवाद......अनेकों वाद प्रचलन में हैं। मिलावट, घूसखोरी, कमीशनखोरी बढ़ती जा रही है। कुछ प्रतिशत विरोधियों के स्वर जंगलराज के नक्कारखाने में तूती की आवाज की तरह होकर रह गये हैं। देश में जंगलराज कायम हो गया है। हत्या, लूट, बलात्कार की घटनाओं के बारे में कुछ भी लिखना कमतर ही कहा जाएगा। सेल्फी का जमाना चल रहा है। इण्डिया जो भारत है के समस्त क्षेत्रों का डिजिटलाइजेशन कर दिया गया है। छोटे से लेकर बड़े कार्य आनलाइन होने लगे हैं। रोटी, कपड़ा और मकान की व्यवस्था भी आनलाइन हो गई है। देश के लोग अमीर बन गए हैं। घर बैठे इन्टरनेट के जरिए सभी कार्यों का सम्पादन कर रहे हैं।

दिनवा की सन्तानों से लेकर अनिल बी के सन्तानों के हाथों में हजारों रूपए के महंगे स्मार्ट फोन देखने को मिल रहे हैं। इन 70 वर्षों में देश ने बहुत ही तरक्की कर लिया है। कितना और करेगा यह आने वाला समय बताएगा। पिछले कुछ दशकों से आज तक देश का जिस तेजी से विकास हो रहा है उस गति की बराबरी हमारी लेखनी भी नहीं कर पा रही है।

हालांकि हैप्पी बर्थडे विश करना फिरंगी परम्परा है। कहने को हम पूर्णतया गुलामी व अंग्रेजी दासता की बेड़ियों से मुक्त हैं....... स्वाधीन राष्ट्र के नागरिक हैं, परन्तु इस तरह की शुभकामनाएँ देना हमारे संस्कार में शामिल है। हम ऐसा इसलिए कह रहे हैं कि जब हम किसी को भारतीय संस्कृति में शुभकामना व बधाई देते हैं तो हमें उसके प्रत्युत्तर में फिरंगियों की तरह विशिंग्स कॉम्पलीमेन्ट्स मिलते हैं। चलिए मिला तो सही भले ही तौर-तरीका व संस्कृति अलग हो।

खैर! छोड़िए गणतन्त्र दिवस पर देशवासियों को शुभकामनाएँ दीजिए और प्रेम से बोलें 26 जनवरी जिन्दाबाद, जन-गण-मन...........और विजयी विश्व तिरंगा प्यारा..........। 70 वर्षों में हुए विकास कार्यों की झाँकी सजाएँ। बस एक दिन की ही बात है, फिर सब पूर्ववत चलने लगेगा। भ्रष्टाचार और महंगाई के बारे में सोचकर क्या किया जाएगा। इस पर कौन अंकुश लगाएगा? वह जिसे हमारा नेता/जनप्रतिनिधि कहा जाता है? जिसे चुनकर हम छोटी से लेकर बड़ी पंचायतों में भेजते हैं? वह तो स्वयं ही सत्ता की बागडोर संभालने के बाद भ्रष्टाचार में लिप्त हो जाता है। सरकारी पैसों का स्वहितार्थ उपयोग कर सुख भोगते हुए उसे महंगाई की विकरालता का पता ही नहीं चलता। साउण्ड प्रूफ, बन्द गाड़ियों में चलता है, आगे-पीछे पूरा फोर्स लगा रहता है, उसे अवाम की इन्कलाबी आवाजें सुनाई नहीं पड़ती हैं। क्योंकि ‘‘जाके पाँव न फटी बिवाई सो का जाने पीर पराई।’’ ऐसे परिदृश्य को ही शायद ‘‘रामराज’’ कहा जा सकता है और ऐसे में रामनाम की लूट है, लूट सको तो लूट........।


                                                            रीता विश्वकर्मा


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