गला रुंध सा गया है
समय की मार खाकर
फिर भी हँसता रहा खुद
और जमाना मुझे देख कर
हर बार आजमाया हूँ अपने को
लगा दी बाजी सब कुछ दाव पर
बाजी किसके नाम हो नही पता
जीतेंगे एक दिन इसी मुकाम पर
नये दौर के चेहरे ,पहचान न सका
उनपर लगे मुखौटे को जान न सका
बंजारा हूँ खानावदोश जिंदगी अपनी
किराये की जिंदगी को घर न वसा सका
तुम कदम बढ़ाते हो फक्र में जीता हूँ
कदम बढ़े ही क्यूँ ,ओ मुस्कुरा न सका
छबिराम यादव छबि
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