साहित्य चक्र

03 January 2020

ग़ज़ल


इक  जमाना  था कभी  पैगाम लाती चिट्ठियाँ 
अब कहाँ  कोई भी  भेजे मुस्कुराती  चिट्ठियाँ


हर घड़ी  ऐसा लगे  जैसे  महीनों हो  गए
डाकिए का  रास्ता सबको दिखाती  चिट्ठियाँ


छीन लेती थीं सखी चुपचाप आ पीछे से खत  
क्या लिखा हम भी पढ़े, तू क्यूँ छिपाती चिट्ठियाँ


डाक बाबू  यूँ लगे  जैसे  मसीहा  है  वही 
हाल  बेटे का  बता  मलहम लगाती चिट्ठियाँ


देखकर कोना फटी आती कहीं से पातियाँ 
बैठने लगता ज़िगर  आँसू बहाती   चिट्ठियाँ 


याद आता है बहुत गुजरा  हुआ 'अंजू'वो कल  
आज भी पढ़ पढ़ हसूँ  कभी रुलाती चिट्ठियाँ


                                अंजलि गोयल 'अंजू '


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